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________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका ७०५ करणं पंचप्रकृतिस्थानमं कटुत्तिर्दु द्वितीयभागमं पोहि तत्प्रथमसमयदोळ चतुःप्रकृतिस्थानमं कटुगुं। मत्तमा निजद्वितीयभागानिवृत्तिकरणं चतुःप्रकृतिस्थानमं कट्दुत्ति? निजतृतीयभागमं पोद्दि तत्प्रथमसमयदोळ त्रिप्रकृतिस्थानमं कटुगुं। मत्तमा तृतीय भागानिवृत्तिकरणं त्रिप्रकृतिस्थानमं कटुत्तिर्दु निजचतुर्थभागमं पोदि तत्प्रथमसमयदोद्विप्रकृतिस्थानमं कटुगुं। मत्तमा चतुर्थभागानिवृत्तिकरणं द्विप्रकृतिस्थानमं कटुत्तिर्दु निजपंचमभागमं पोद्दि एकप्रकृतिस्थानमं कटुगुं। इंतल्पतरबंधंगळ पन्नोंदु संभविसुव प्रकारं पेळपट्टुदु । अवस्थितबंधभेदंगळु मूवत्तमूरप्पुर्वते दोडे भुजाकारबंधभेदंगळिप्पत्तमल्पतरबंधंगळु पन्नों दुमवक्तव्यबंधंगळे रडुमितु मूवत्तमूररोळं द्वितीयादिसमयंगळोळु समबंधसंभवंगळप्पुर्वेदु निश्चयिसुवुदु ॥ ई सामान्यभुजाकाराल्पतरावस्थितावक्तव्यमब चतुविधबंधगळं विशेषिसि पेन्दपरु : सत्तावीसहियसयं पणदालं पंचहत्तरहियसयं । भुजगारप्पदराणि य अवट्ठिदाणिवि विससेण ।।४७१॥ सप्तविंशत्युत्तरशतं पंचचत्वारिंशत्पंचसप्तत्यधिकशतं । भुजाकाराल्पतराश्चावस्थिता अपि विशेषेण ॥ विशेषदिदं भुजाकाराल्पतरावस्थितंगळ यथाक्रमदिदं सप्तविंशत्युत्तरशतं १२७ । पंचचत्वारिंशद् भेदमुं ४५। पंचसप्तत्यधिकशतमु १७५ । मप्पुवर्दै तेंदोडे सामान्यबंधस्थानंगळु पत्तु १०। १५ असंयतः सप्तदश बहनन् देशसंयतो भूत्वा त्रयोदश वा अप्रमत्तो भूत्वा नव च बध्नातीति सप्तदशबंधे द्वौ । पुनः तत्त्रयोदशबंधकोऽप्रमत्तो भूत्वा नव, नवबंधकोपूर्वकरणेऽनिवृत्तिकरणप्रथमभागे पंच, पंचबंधकः द्वितीयभागे चत्वारि, चतुबंधकस्तृतीयभागे त्रीणि, त्रिबंधकश्चतुर्थभागे द्वे, द्विबंधकः पंचममागे एकं च बन्नातीत्यकैकः । एवमल्पतरबंधाः एकादश । उक्तभुजाकाराल्पतरावक्तव्यानां द्वितीयादिसमयेषु समबंधोऽव. स्थितबंधस्त्रयस्त्रिशत् ॥४७०॥ अथ विशेषभजाकारादीन संख्याति विशेषभुजाकाराः सप्तविंशतिशतं, अल्पतराः पंचचत्वारिंशत्, अवस्थिताः पंचसप्ततिशतं । तत्र २० बाँधे या अप्रमत्त होकर नौको बाँधे, इस तरह सतरहके बन्धस्थानमें दो अल्पतर होते हैं। तथा तेरहका बन्धक अप्रमत्त हो नौको बाँधे, नौका बन्धक अपूर्वकरण या अनिवृत्तिकरणके प्रथम भागमें पाँच बाँधे, पाँचको बांधकर दूसरे भागमें चार बाँधे, चारको बाँध तीसरे भागमें तीन बाँधे, तीनको बाँध चौथे भागमें दो बाँधे, दोको बाँध पाँचवें भागमें एक बाँधे, २५ इस तरह इन स्थानोंमें एक-एक अल्पतर होता है। ऐसे सब अल्पतर ग्यारह होते हैं। तथा ऊपर कहे दो अवक्तव्य, बीस मजाकार. ग्यारह अल्पतर ये सब मिलकर तेतीस अवस्थित बन्ध होते हैं; क्योंकि इन बन्धोंमें जितनी प्रकृतियोंका बन्ध कहा है उतनी ही प्रकृतियोंका बन्ध द्वितीयादि समयोंमें जहाँ होता है वहाँ अवस्थित बन्ध कहा जाता है ।।४७०॥ आगे विशेष भुजाकारादिकी संख्या कहते हैं विशेष रूपसे भुजाकार एक सौ सत्ताईस, अल्पतर पैंतालीस, और अवस्थित एक सौ पिचहत्तर होते हैं । विशेष मुजाकार कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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