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________________ गो० कर्मकाण्डे ल्पतरबंधंगळु विचारिसल्पडुगु मर्द' ते ' दोर्ड -- अनादिमिथ्यादृष्टिमेणु सादिमिथ्यादृष्टिमेणु करणत्रयमं माडि अनिवृत्तिकरणच रमसमयदोळ द्वाविंशतिप्रकृति मोहनीयस्थान में कट्टुत्तमनंतरसमयवोळु असंयत प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टियागि सप्तदशप्रकृतिस्थानमं कट्टिदोर्ड यिदों वल्पतरबंधभेद मक्कुमथवा सादिमिथ्यादृष्टिसम्यक्त्व प्रकृत्युदर्यादद वेदकसम्यग्दृष्टियागि अप्रत्याख्यान५ कषायोदर्याददमसंयतनागि सप्तदशप्रकृतिस्थानमं कट्टुगुं । मत्तमा मिथ्यादृष्टिकरणत्रयमं माडि अनिवृत्तिकरण चरमसमयदोळ द्वाविंशतिमोहनीयबंधत्थानमं कट्टि तदनंतर समयवो प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टियागि प्रत्याख्यानावरणोदर्याददं देशसंयतनागि त्रयोदशप्रकृतिस्थानमं कट्टु । अथवा सादिमिथ्यादृष्टि द्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तिदु तदनंतरसमयदोळु सम्यक्त्व प्रकृतिप्रत्याख्यानावरणोदयंगळदं वेदकसम्यग्दृष्टि देशसंयतनागि त्रयोदशप्रकृतिबंधस्थानमं कट्टुगुं । १० मत्तमा साधनादिमिथ्यादृष्टिगळु द्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तिर्द्दनंतरसमयदोळ प्रमत्तनागि नव प्रकृतिस्थानमं कट्टुगुमितपुनरुक्ताल्पत रबंधभेदंगळु द्वाविंशतिप्रकृतिस्थानबंधदत्तणिदं मूरप्पुवु । मत्तमसंयतवेदकसम्यग्दृष्टि मेणु क्षायिकसम्मदृष्टि सप्तदशप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तिर्दु तदनंतरसमयदो प्रत्याख्यानवरणोदर्याद देशसंयतनागि त्रयोदशप्रकृतिस्थानमं कट्टुगुं । मत्तमसंयतं सप्तदशप्रकृतिस्थान मं कट्टुत्ति अनंतरसमयदोळु महाव्रतियप्रमत्त संयतनागि नवप्रकृतिस्थानमं कट्टु । १५ यितु सप्तदशप्रकृतिस्थानबंधकं गल्पतरबंधभेदंगळे रडप्पुवु । सप्तदशप्रकृतिबंधकं सम्यग्मिथ्यादृष्टिमेले असंयतगुणस्थानमं पोद्दिसप्तवाप्रकृतिस्थानमनल्लियं. कट्टुगुमप्पुदरिदमा मिश्र अल्पतरबंधभेदं संभविसदु । मत्तं त्रयोदशप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्ति देशसंयतं महाव्रतियप्रमत्तसंयतनागि नवप्रकृतिस्थानमं कट्टुगुं । मत्तमपूवं करणं नवप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तिर्दनिवृत्तिकरणप्रथमभागमं पोद्दि तत्प्रथमसमयवोळ पंचप्रकृतिस्थानमं कट्टुगुं । मत्तमा प्रथमभागानिवृत्ति २० ७०४ २५ न्यस्मिन्वा भवे द्वाविंशति बनातीत्येकः । एवं भुजाकारा विंशतिः । अथाल्पतरबंधा उच्यंते अनादिः सादिव मिध्यादृष्टिः करणत्रयं कुर्वन्ननिवृत्तिकरणचरमसमये द्वाविंशति बघ्नन्ननंतरसमये प्रथमोपमसम्यग्दृष्टिभूत्वा वा सादिमिध्यादृष्टिरेव सम्यक्त्वप्रकृत्युदये सति वेदकसम्यग्दृष्टिभूत्वा उभयोऽप्यप्रत्याख्यानोदयेऽसंयतो भूत्वा सप्तदश बध्नाति । वा प्रत्याख्यानोदये देशसंयतो भूत्वा त्रयोदश बध्नाति, वा संज्वलनोदयेऽप्रमत्तो भूत्वा नव बनातीति द्वाविंशतिबंधे त्रयः । पुनः वेदकसम्यग्दृष्टिः क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्वा इक्कीसको बाँधकर मिध्यादृष्टि होकर उसी भव में या दूसरे भव में बाईसको बाँधे तो इक्कीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान में एक भुजाकार हुआ। इस प्रकार भुजाकार बन्ध बीस होते हैं । अब अल्पतर बन्ध कहते हैं - अनादि अथवा सादि मिथ्यादृष्टी तीन करण करते हुए अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में बाईसका बन्ध करके अनन्तर समय में प्रथमोपशम सम्यक्त्वी होकर अथवा सादि मिध्यादृष्टी सम्यक्त्व मोहनीयके उदयसे वेदक सम्यक्त्वी होकर, दोनों ही अप्रत्याख्यानका उदय होनेसे असंयत होते हुए सतरहको बाँधे, या ३० प्रत्याख्यानके उदय में देशसंयत हो तेरह बाँधे, या संज्वलनका उदय होनेसे अप्रमत्त हो नौ को बाँधे इस प्रकार बाईस प्रकृतिरूप बन्धस्थानमें तीन अल्पतर बन्ध होते हैं । वेदक सम्यग्दृष्टी या क्षायिक सम्यग्दृष्टी असंयत सतरहको बाँध देशसंयत हो तेरहको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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