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________________ १०१२ गो० कर्मकाण्डे यक्कुमल्लि युपशमसम्यग्दृष्टियोळ अष्टाविंशति चतुध्विंशति सत्वस्थानमक्कु । क्षायिकसम्यग्दृष्टियोळ येकविंशति त्रयोदशद्वादश एकादश प्रकृतिसत्वस्थान चतुष्टयमक्कु। चतुबंधकमेकप्रकृत्यु. दयानिवृत्तिकरणनोळुपशमसम्यग्दृष्टियोळु अष्टाविंशतिचतुविशतिस्थानद्वयसत्वमक्कु । क्षायिकसम्यग्दृष्टियोळेकविंशति एकादश पंच चतुःप्रकृतिसत्वस्थान चतुष्टयमकु। त्रिःप्रकृतिबंधकमेक. प्रकृत्युदयानिवृत्तिकरण नोपशमसम्यग्दृष्टियोळ अष्टाविंशति चतुविशतिसत्वस्थानद्वयमक्कं । शेष एकविंशति चतुस्त्रिप्रकृतिसत्वस्थानत्रितयं क्षायिकसम्यग्दृष्टियोळक्कुं। द्विप्रकृतिबंधकमेक प्रकृत्युदयानिवृत्तिकरण नोळपशमसम्यग्दृष्टियोळु अष्टाविंशति चतुविशति सत्वस्थानद्वयमक्कुं। शेष एकविंशति त्रिद्विप्रकृतिसत्वस्थानत्रयं क्षायिकसम्यग्दृष्टियोळक्कुं। एकप्रकृतिबंधमेक प्रकृत्युदयानिवृत्तिकरणनोळुपशमसम्यग्दृष्टियोळष्टाविंशति चतुविशतिस्थानद्वयमक्कुं । शेष १० एकविंशतिद्वि एकप्रकृतिसत्वस्यान त्रयं क्षायिकसम्यग्दृष्टियोळक्कुं। यिल्लियुमोदु विशेषमुंटदाउ देंदोडे क्षपकानिवृत्तिकरणनोळ चतुस्त्रिद्वयकप्रकृतिबंधकनोळ क्रमदिदं पंच चतुश्चतुस्त्रित्रिद्विद्वयकसत्वस्थानंगळोळु पूर्वपूर्वप्रकृतिनवकबंधसत्वमुमुच्छिष्टावलिसत्वं विवक्षिसल्प? वे दरियल्पडुगुं॥ अनतरं बंधसत्वस्थानद्वयाधिकरणमुदयस्थानादेयत्रिसंयोगप्रकारं गाथापंचकदिदं १५ पेळळपडुगुं: पंचचतुष्कबन्धद्विकोदयेऽनिवृत्तिकरणे सत्त्वमुपशमसम्यक्त्वेऽष्टचतुरविंशतिके द्वे, क्षायिकसम्यक्त्वे एकविंशतिकत्रिद्वये काग्रदशकानि । चतुकबन्धककोदये उपशमसम्यक्त्वेऽष्टचतुरग्रविशतिके द्वे, क्षायिकसम्यक्त्वे एकविंशतिककादशकपंचकचतुष्काणि । त्रिकबन्धैककोदये उपशमसम्यक्त्वेऽष्टचतुरविंशतिके हे क्षायिकसम्यक्त्वे एकविंशतिकचतुष्कत्रिकाणि । द्विकबन्धककोदयानिवृत्तिकरणे उपशमसम्यक्त्वेष्टचतुरविंशतिके द्वे । क्षायिकसम्यक्त्वे एकविंशतिकत्रिकद्विकानि । एकबन्धकोदये उपशमसम्यक्त्वेऽष्टचतुरग्रविशतिके द्वे क्षायिकसम्यक्त्वे एकविंशतिकद्विकै कानि । अत्र क्षपकानिवृत्तिकरणे चतुस्त्रिद्वयेकबन्धे क्रमेण पंचचतुश्चतुस्वित्रिद्विद्वये कसत्त्वेषु पूर्वपूर्वनवकबन्धोच्छिष्टावलिसत्त्वे विवक्षिते ज्ञातव्ये ॥६७९॥ अथ बन्धसत्त्व द्विस्थानाधारोदयैकस्थान धेयं गाथापंचकेनाह २० चारका बन्ध और एकके उदय सहितमें उपशम सम्यक्त्वमें अठाईस, चौबीसका और क्षायिक सम्यक्त्वमें इक्कीस, ग्यारह, पाँच, चारका सत्त्व है। तीनका बन्ध एकके उदयसहितमें उपशम सम्यक्त्वमें अठाईस चौबीसका और क्षायिक सम्यक्त्वमें इक्कीस, चार, तीनका सत्त्व है। दोका बन्ध एकके उदय सहित अनिवृत्तिकरणमें उपशम सम्यक्त्वमें अठाईस, चौबीसका और क्षायिक सम्यक्त्वमें इक्कीस, तीन, दोका सत्त्व है । एकका बन्ध एकके उदयसहितमें उपशम सम्यक्त्वमें अठाईस, चौबीसका, क्षायिक सम्यक्त्वमें इक्कीस, दो, एकका सत्व है। यहाँ क्षपक अनिवृत्तिकरणमें चार, तीन, दो एकके बन्धमें क्रमसे पाँच चार, चार तीन, तीन दो, दो एकका सत्त्व है। उसमें पूर्वपूर्व वेद और कषायके नवकबद्ध समयप्रबद्धके जो उच्छिष्टावली मात्र निषेक रहते हैं उनकी विवक्षा जानना ॥६७९॥ ___ आगे बन्ध-सत्त्वको आधार और उदयको आधेय मानकर पाँच गाथाओंसे कथन करते हैं ३० For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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