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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका बावीसे अडवीसे दस चउरुदओ अणे ण सगवीसे । छब्बीसे दस यतियं इगिअडवीसे दु णवयतियं ॥ ६८० || द्वाविंशतावष्टा विशतौ दशचतुरुदयोऽनेन सप्तविंशत्यां । षड्वंशत्यां दशत्रिकं एकाष्टाविशत्यां तु नवकत्रयं ॥ १०१३ चतुर्गतिज द्वाविशति प्रकृतिबंधक मिथ्यादृष्टियोष्टाविंशति प्रकृतिसत्वस्थानमव कुमप्पा- ५ डल्लि वशाद्युदयस्थानचतुष्टयमक्कु मेर्क दोर्ड अल्लिये अनंतानुबंधिरहित मिथ्यादृष्टि संभविसुगुमध्बरिद । मा द्वाविंशतिप्रकृतिबंधदोडने सप्तविंशति षड्वंशति सत्वस्थानंगळोळु दशादि त्रिस्थानंगप्पुवा मिथ्या दृष्टिजीवं सम्यक्त्व प्रकृतियुमं मिश्रप्रकृतियुमनुद्वेल्लनमं क्रमदिदं माडिद संक्लिष्टचतुर्गतिजर्न' दरियल्प डुगुमप्पुदरि नल्लि अनंतानुबंधिरहितोदयचतुःकूटंगळ संभविसर्व बुदथं । एकविंशतिबंधक चतुर्गतिजसासादन नव कुमातनोळ अष्टाविंशतिसत्वस्थानमो देवकुमल्लि मिथ्यात्वप्रकृत्युदय र हितत्वदिदं नवाद्यपुनरुक्तोदय त्रिस्थानंगळवु ॥ सत्तरसे अडचउरिगिवीसे णवयचदुरुदयमिगिवीसे । पढओ एवं तदुवी से णांतिमस्सुदओ ||६८१ ॥ सप्तदशस्वष्टचतुरेकविंशत्यां नवकचतुरुदयः एकविंशत्यां । नो प्रथमोदयः एवं त्रिद्विविंशत्यां नांतिमस्योदयः ॥ सप्तदशप्रकृतिबंधं चतुग्गंतिजनप्प मिश्रनोळमसंयतनोळमक्कुमवर्गलोळु अष्टचतुरेकविशतिसत्त्वस्थानंगळ, संभविसुगुमल्लि अष्टाविंशतिचतुव्विशतिसत्वस्थानंगळ, क्रर्माददमनंतानुबंधिसहित रहित स्थानगळप्पुवा सत्त्वस्थानयुतरोळ मिश्रप्रकृत्युदययुतचतुः कूटंगळोळ पुनरुक्तन द्वाविंशतिबन्धके चतुर्गतिमिध्यादृष्टो अष्टाविंशतिकसत्त्वे उदयस्थानानि दशकादीनि चत्वारि अनन्तानुबन्धिरहितस्याप्यत्र सम्भवात् । द्वाविंशतिकबन्धेन समं सप्तषडधिकविंशकसत्त्वे तु तदादोनि त्रीण्येव सम्यक्त्वमिश्रप्रकृतिकृतोद्वेल्लनत्वेनानन्तानुबन्ध्युदय र हितत्वाभावात् । एकविंशतिबन्धक चतुर्गतिसासादनेऽष्टाविंशतिक सव मिथ्यात्वानुदयान्नवकादीनि त्रीणि ।।६८० ॥ सप्तदशकबन्धे वा चतुर्गतिकेऽष्टचतुरग्रविंशतिकसत्त्वे उदयस्थानान्य पुनरुक्तानि नवकादीनि चत्वारि । Jain Education International १० For Private & Personal Use Only १५ बाईसके बन्धक चारों गतिके मिध्यादृष्टी जीवके अठाईसके सत्त्वमें उदयस्थान दस आदि चार हैं; क्योंकि यहाँ अनन्तानुबन्धी- रहित उदयस्थान भी सम्भव हैं । बाईसके २५ बन्ध सहित सत्ताईस, छब्बीसका सत्त्व होनेपर दस आदि तीन ही उदयस्थान होते हैं क्योंकि यहाँ सम्यक्त्व मोहनीय मिश्रमोहनीयकी उद्वेलना युक्त होनेसे अनन्तानुबन्धी रहितपना सम्भव नहीं है । इक्कीसके बन्धसहित चारों गतिके सासादन में अठाईसके सत्त्वमें मिथ्यात्वका उदयज्ञ होनेसे नौ आदि तीन उदयस्थान हैं || ६८० ।। २० सतरह के बन्ध सहित चारों गतिके जीवोंमें अठाईस और चौबीसके सत्त्वमें नौ आदि ३० चार उदयस्थान हैं । किन्तु मिश्र में मिश्रमोहनीय सहित चार कूटोंमें उत्पन्न हुए तीन ही उदयस्थान हैं । www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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