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गो० कर्मकाण्डे जेण विणिम्मिय पडिमावणं सव्वट्ठसिद्धिदेवेहिं ।
सव्वपरमोहिजोगिहि दिळं सो गोम्मटो जयऊ ॥९६९॥
आवनोनि निम्मिसलुपट्ट प्रतिमावदनं सर्वात्य सिद्धिदेवरुळिवमुं सर्वपरमावधियोगिगलिंदमुं काणल्पदृवंताप गोम्मट सर्वोत्कृष्टदिवं वत्तिसुत्तिक्कै ॥
वज्जयलं जिणभवणं ईसिपमारं सुवण्णकलसं तु ।
तिहुवणपडिमाणेक्कं जेण कयं जयउ सो राओ ।।९७०॥ वज्रावनितलं भूमितलमोषत्प्राग्भारं सुवर्णकलशमितु। त्रिभुवनप्रतिमानमद्वितीयं जिनभवनमानि कृतमाराजं विराजिसुत्तिकें ।
जेणुभियथंभुवरिमजक्खतिरीटग्गकिरणजलधोया।
सिद्धाण सुद्धपाया सो राओ गोम्मटो जयउ ॥९७१।। आवनोव्वं नेत्तिव स्तंभव मेलण यक्षमकुटापकिरण जलदिदं प्रक्षालिसल्पटुवु । सिद्धपरमेठिगळ शुद्धपादंगळा राज चामुंडरायं गेलुत्तिकें ॥
येन विनिर्मितप्रतिमावदनं सर्वार्थसिद्धिदेवैः सर्वपरमावधियोगिभिः दष्टं स गोम्मटः सर्वोत्कर्षण वर्तताम् ॥९६९॥
वज्रावनितलं ईषत्प्राग्भारं सुवर्णकलशमिति त्रिभुवनप्रतिमाने अद्वितीयं जिनभवनं येन कृतं स राजा विराजताम् ॥९७०॥
येनोद्भोकृतस्तम्भस्योपरि स्थितयक्षमुकुटाग्रकिरणजालेन धोतो सिद्धपरमेष्ठिनां शुद्धपादौ स राजा चामुण्डरायो जयतु ॥९७१॥
जिसके द्वारा निर्मापित उत्तुंग बाहुबलिकी प्रतिमाका मुख सर्वार्थसिद्धि के देवोंके द्वारा २७ अथवा सर्वावधि परमावधि ज्ञानी योगियोंके द्वारा देखा गया, वह राजा चामुण्डराय सर्वोत्कर्थ रूपसे प्रवर्तमान रहें ॥९६९॥
जिस राजाने ऐसा जिनभवन बनवाया जिसका भूमितल वज्रके समान सुदृढ़ है, सुवर्णके कलशसे शोभित है और तीनों लोकोंमें जिसकी कोई उपमा नहीं है वह राजा
जयवन्त हो ॥९७०॥ २५ जिसके द्वारा ( गोम्मटेशकी मूर्तिके द्वारके सामने ) स्थापित उत्तुंग स्तम्भके ऊपर
स्थित यक्षके मुकुटके अग्रभागसे निकलनेवाली किरणरूपी जलसे सिद्धपरमेष्ठियोंके शुद्ध चरण युगल धोये गये हैं वह राजा चामुण्डराय जयवन्त हो ॥९७१॥
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