SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 527
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ११५५ मनोवचनकायंगळ वक्रमनुळ्ळनुं माययनुळ्ळनुं गारवत्रयप्रतिबद्धनुमप्प जोवं नरकतिय्यंग्गत्याघशुभनामकम्मंगळं कटुगुं । तत्प्रतिपक्षगळिवं ऋजुमनोवचनकायंगळिंदमुनिआयत्वदिवम गारवत्रयरहितत्वविंदमुशुभनामकर्ममं कटुगुं जीवं। अरहंतादिसु भत्तो सुत्तरुची पढणुमाणगुणपेही । बंधदि उच्चागोदं विवरीयो बंधदे इदरं ॥८०९॥ अर्हदादिषु भक्तः सूत्ररुचिः पाठानुमानगुणप्रेक्षो । बध्नात्युच्चैर्गोत्रं विपरीतो बध्नातीतरत्॥ अहंदादिगळोळ भक्तियनळ्ळनुं गणधरप्रोक्ताद्यागम सूत्रंगळोळ श्रद्धानमुळ्ळD अध्यय. नार्थविचारविनयादिगुणशियुमप्प जीवनुच्चैपर्गोत्रकर्ममं कटुगुं। विपरीतः अहंदादिगळोळु भक्तिरहितमं आगमसूत्रंगळोळ श्रद्धानमिल्लवनु अध्ययनार्थविचारविनयादिगुणविजितनुमप्प जीवं नीचैर्गोत्रमं कटुगुं। पाणवधादीसु रदो जिणपूजामोक्खमग्गविग्घयरो। अज्जेइ अंतरायं ण लहइ जं इच्छियं जेण ॥८१०॥ प्राणवधादिषु रतः जिनपूजामोक्षमार्गविघ्नकरोजयत्यंतरायं न लभते यदीप्सितं येन ॥ येन आउदों दंतरायकम्र्मोदयविदं यदीप्सितात्वं न लभते आउदोंदु तन्नीप्सितार्थम पडेयलरियनंतप्पतरायकर्ममं प्राणवधाविषु रतः द्वित्रिचतुरित्रियाः प्राणाः गुळे जिगुळे मोदलाद १५ वोंद्रियंगळमं पेनु करयुतगुणे मिरुपेयु मोरलाद त्रौंद्रियंगळं नोणं नोंजु मोदलाव चतुरिद्रियजीवंगळमं तां कोलुव कोलेगळो; परक्को लुव कोलेगळोळं प्रोतियनुलनु जिनपूजेगळं मोक्ष. मार्गमप्प रत्नत्रयंगळ प्राप्तिगे तनगं पेरगं विघ्नकारियुमप्प जीवनंतरायकर्ममनुपाज्जिसुगु। तस्प्रतिपक्षपरिणामहि शुभं नामकर्म बध्नाति ।।८०८।। यः अर्हदादिषु भक्तः गणपराधक्तागमेषु श्रद्धाध्ययनार्थविचारविनयादिगणदर्शी स जीवः उच्चोत्र २० बध्नाति । तद्विपरीतो नीचैर्गोत्रं बध्नाति ॥८०९।। यः द्वित्रिचतुरिंद्रियवधेषु स्वपरकृतेषु प्रीतः। जिनपूजायां रत्नत्रयप्राप्तेश्च स्वान्ययोबिनकरः स जीवस्तदन्तरायकर्जियति येनोदयागतेन यदीप्सितं तन्न लभते ।।८१०॥ है वह नरकगति तिर्यंचगति आदि अशुभ नामकर्मको बांधता है। और इनसे विपरीत अर्थात् जो कपट रहित है, गारव रहित है वह शुभ नामकर्मको बाँधता है ।।८०८॥ २५ जो अरहन्त आदिमें भक्ति रखता है, गणधर आदिके द्वारा कहे शास्त्रोंमें श्रद्धावान् है, उनके अध्ययनके लिए विचार विनय आदि गुणोंमें अनुरागी है वह उच्चगोत्रका बन्ध करता है । उससे विपरीत नीच गोत्रका बन्ध करता है ।।८०९॥ ____जो जीव अपने द्वारा अथवा दूसरेके द्वारा किये गये दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, जीवोंकी हिंसासे प्रेम करता है, जिनपूजा रत्नत्रयकी प्राप्तिमें अपने लिए भी दूसरों के लिए ३० भी बाधा डालता है। वह जीव अन्तराय कर्मका बन्ध करता है जिसके उदयसे जीव इच्छित वस्तुको प्राप्त नहीं कर सकता ॥८१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy