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________________ ७४० १५ मि सा | मि १३ १३ १० गो० कर्मकाण्डे अ दे प्र अ अ १३ | ९ ११ ९ ९ अनंतरमी गुणस्थानं गळोळ, मिश्रयोगंगळुळ्ळ गुणस्थानंगळ मं केवलं पर्य्या प्रयोगंगळुळ्ळ गुणस्थानंगळ मं विवरिसि पेदपरु : मिच्छे सासण अयदे पमत्तविरदे अपुण्णजोगगदं पुण्णगदं च य सेसे पुण्णगदे मेलिदं होदि ||४९५ ॥ मिथ्यादृष्टौ सासादने असंयते प्रमत्तविरते अपूर्ण योगं पूर्णगतं च च शेषे पूर्णगते मिलितं भवति ॥ मिथ्यादृष्टौ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळं, सासादने सासादनगुणस्थानदोळं, असंयते असंयतगुणस्थानदोळ, प्रमत्तविरत प्रमत्तविरत गुणस्थानदोळुमितु चतुर्गुणस्थानं गळोळ अपूर्णयोगमुं पूर्णयोगमुमोळवा अपूर्णयोगगतं च अपर्थ्याप्तयोगगतस्थानमुमं । पूर्णगतं च पय्र्याप्तकयोगगतस्थानमुमं १० मिलितं कूडिदुदं । शेषे पूर्णगते शेषगुणस्थानंगळ पूर्णयोगगतस्थानदोळ, मिलितं कूडल्पट्टुवु । योगाश्रित सर्व्वस्थानप्रमाणमु प्रकृतिप्रमाणमुं भवति अक्कुमदतें दोडे मिथ्यादृष्टियोळनंतानुबंधिकषायोदययुत चतुःस्थानंगळ मवर प्रकृतिगळ, ८ मनोयोगचतुष्कमुं वारयोग चतुष्क मुमौदारिक ९८९ अ । सू । उ । क्षी | स | अ ९ ९ ९ ९ ७० Jain Education International १० ३६ काययोगमुमौदारिक मिश्रयोगमुं वैक्रियिककाययोगमुं वैक्रियिकमिश्रयोगमुं काम्मँणकाययोगमुमेंब अथ मिश्रयोगयुक्त केवल पर्याप्त योगयुक्त गुणस्थानानि विशेषयति मिध्यादृष्टो सासादने असंयते प्रमत्तविरते चेति चतुर्गुणस्थानेषु अपर्याप्तयोगगतं पर्याप्तयोगगतं च मिलितं स्थानप्रमाणं प्रकृतिप्रमाणं च भवति । शेषगुणस्थानेषु केवलपर्याप्तयोगगतमेव तद्वयं भवति । तद्यथा८ | स्वयोर्गुणिता द्वापंचाशत्, अष्टषष्टयप्रचतुःशतानि । विसंयोजिता मिथ्यादृष्टौ स्थानप्रकृतयः ९।९ १० ३६ आगे मिश्रयोगवाले और केवल पर्याप्त योगवाले गुणस्थानोंको कहते हैं • मिध्यादृष्टि, सासादन, असंयत तथा प्रमत्त विरत इन चार गुणस्थानों में अपर्याप्त योग २० भी होते हैं और पर्याप्त योग भी होते हैं । अतः इनमें इन दोनोंको मिलाकर स्थानों और प्रकृतियोंका प्रमाण होता है। शेष गुणस्थानों में केवल पर्याप्त योग ही होते हैं अतः उन्हीं को लेकर स्थान प्रमाण और प्रकृति प्रमाण होता है। वही कहते हैं - मिथ्यादृष्टि के पहले कूटोंमें चार स्थान और १० +९+९+८ = छत्तीस प्रकृति हैं । उनको तेरह योगों से गुणा करनेपर बावन स्थान और चार सौ अड़सठ प्रकृति होती हैं । २५ अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनरूप अन्तर्मुहूर्त में मरण नहीं होता इसलिए पिछले चार कटोंके चार स्थान और बत्तीस प्रकृतियोंको ९+८+८+७ = दस योगोंसे गुणा करनेपर चालीस For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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