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________________ लिंगकषाया लेश्याः संगुणिताः चतुर्गातिष्वविरुद्धा । द्वादशद्वासप्ततिस्तावन्मात्रश्चाष्ट५ चत्वारिंशत् ॥ २० ११७० चतुर्गतिषु नरकादिचतुर्ग्यतिगळोळ अविरुद्धाः अविरुद्धंगळप्प लिंगकषाय लेइये गळ संगुणिताः परस्परं गुणि सल्पट्टुवु । नरकादिगतिगळोल क्रमदिदं द्वादश द्वासप्तति तावन्मात्राष्टाचत्वारिंशत्प्रमितभंगंगळप्पुवु । अवें तें दोर्ड नरकगतियोळविरुद्धमप्प ळिगकषायलेइयेगळु षंडवेदमोदु चतुः कषायंगळ मशुभलेश्यात्रितयंगळ सप्पुवु । लिंग १ । कषाय ४ । ले ३ । यिवं परस्परं १० गुणि सिवोर्ड पर्न र भंगंगळवु । १२ । तिर्य्यग्गतियोळविरुद्धमागि त्रिलिंगंगळं चतुः कषायंग षड्लेश्यगळमध्वुवु । लि ३ । क ४ । ले ६ । इवं परस्परं गुणिसिदोडे द्वासप्ततिभंगंगळवु ७२ । मनुष्यगतियो मिलि ३ । क ४ । ले ६ । यिवं परस्परं गुणिसिदोर्ड द्वासप्रति भंगंगळवु । ७२ । देवगतियो अविरुद्धमागि लि २ | क ४ । ले ६ । यिल्लि भवनत्रयापर्य्याप्तरं कुरुत्त अशुभलेश्यात्रयमरियपडुगुं । इवं परस्परं गुणिसिदोडष्टाचत्वारिंशद् भंगंगळवु । ४८ । यी नाल्कुं गतिगळ १५ भंगंगळ कूडि प्रत्येकं मिथ्यादृष्टियोळ सासादननोळ अप्पुवु । मि २०४ । सा २०४ । यी भंगंगळु vinegar | मिश्रंगमसंयतंगं नरकगतियोळु अविरुद्धमागि नपुंसकवेदमुं चतुः कषायंगळुमशुभलेश्यात्रयमुमवु । लिं १ | क ४ | ले ३ | इवं परस्परं गुणिसिदोडे द्वादशभंगंगळवु । १२ । तिर्य्यग्गतियो योग्यमप्प लि ३ । क ४ । ले ६ । यिवं परस्परं गुणिसिबोडे द्वासप्ततिभंगंगलcg | २५ गो० कर्मकाण्डे अनंतरमी औदयिकभावस्थानवर्क भंगंगळ मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानंगळोळ, पेव्दपरु :लिंगकसाया लेस्सा संगुणिदा चदुगदीसु अविरुद्धा | बारस बावत्तरियं तत्तियमेत्तं च अडदालं ॥८२८ ॥ ३० विमा द्वो, तो हि मनुष्यगत्य सिद्धत्वे ॥ ८२७॥ अथौदयिकस्थानभंगान् गुणस्थानेष्वाह--- चतुर्गतिष्वविरुद्धाः लिंगकषाय लेश्याः । तत्र नरकगती षंढवेदचतुः कषायत्र्यशुभलेश्याः, तिर्यग्प्रनुष्यगत्योस्त्रिलिंगचतुः कषायवड्लेश्याः, देवगती स्त्रीपुंलिंगचतुष्कषाय त्रिशुभलेश्याः भवनत्रयापर्याप्त शुभलेश्याः अपि सर्वत्र गुणिताः क्रमेण द्वादश द्वासप्ततिः द्वासप्ततिरष्टचत्वारिंशद्भवन्ति । मिलित्वा २०४, मिथ्यादृष्टी बिना चार होते हैं । सयोगी में अज्ञान बिना तीन होते हैं। अयोगी में लेश्या बिना मनुष्यगति और असिद्धत्व ये दो होते हैं ॥ ८२७|| 1 आगे औदयिक स्थानोंके भंगोंको गुणस्थानों में कहते हैं चारों गतियोंमें अविरुद्ध लिंग कषाय लेश्याको परस्पर में गुणा करें । सो नरकगति में तो नपुंसक वेद, चार कषाय, तीन अशुभ लेश्याओंको परस्पर में गुणा करनेसे बारह होते हैं। तिर्यच और मनुष्यगति में तीन वेद, चार कषाष, छह लेश्याओंको परस्पर में गुणा करने से बहत्तर बहत्तर होते हैं । देवगति में स्त्री-पुरुष दो लिंग, चार कषाय, तीन शुभ लेश्याको और भवनत्रिक में अपर्याप्त दशा में तीन अशुभ लेश्या भी होती हैं अतः छह लेश्याको परस्पर में गुणा करनेपर अड़तालीस होते हैं । सब मिलकर दो सौ चार हुए। सो इतना तो मिध्यादृष्टि और सासादनमें गुण्य होता है ||८२८|| विशेषार्थ - जिसको गुणकारसे गुणा करते हैं उसे गुण्य कहते हैं। आगे इन्हें गुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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