SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 618
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गो० कर्मकाणे अनंतरं परसमयिगळ वचनंगळ बसत्यके कारणमं पेन्दपर : परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होइ सव्वहा वयणा । जहणाणं पुण वयणं सम्म खु कहंचिवयणादो ॥८९५॥ परसमयानां वचनं मिथ्या खलु भवति सर्वथा वचनात् । जेनानां पुनवंचनं सम्यक्खलु ५ कथंचिद्वचनतः॥ परसमयानां वचनं मिथ्या खलु भवति सर्वथा वचनात् । जनानां पुनर्वचनं सम्यक् खलु कथंचिदपनात् ।।८९५॥ पर समय अर्थात् अन्य दर्शनोंका वचन मिथ्या है क्योंकि वे वस्तुको सवथा एकरूप ही मानते हैं। किन्तु जैनोंका वचन सत्य है; क्योंकि वे वस्तुको कथंचित् उस रूप कहते १० हैं ॥८९५॥ विशेषार्थ-जैनमतके अनुसार वस्तु अनेकान्तात्मक है। उसमें परस्परमें विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनेक धर्म रहते हैं । एक ही वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी है । एक भी है अनेक भी है । भावरूप भी है और अभावरूप भी है। स्वरूपसे भावरूप है और पररूपसे अभावरूप है । जैसे घट घटरूपसे सत् है और पटरूपसे असत् है । यदि ऐसा न माना जाये और घटको केवल सत् ही माना जाये तो जैसे घट-घट रूपसे सत् है वैसे ही पटरूपसे भी सत् हो जायेगा, क्योंकि आप उसे सर्वथा सत् मानते हैं। सर्वथाका मतलब है सब रूपसे या सब प्रकारसे। अतः जो वस्तुको सर्वथा सत् कहते हैं उनका कथन मिथ्या है। प्रत्येक वस्तुका वस्तुत्व दो बातोंपर निर्भर है-स्वरूपका ग्रहण और पररूपका त्याग । स्वरूपका प्रहण भावरूप है और पररूपका त्याग अभावरूप है। अतः वस्तु भावाभावात्मक है । इस२० लिए जैनदर्शन वस्तुको कथंचित् सत् और कथंचित् असत् कहता है। कथंचित्का मतलब है किसी अपेक्षासे, सर्वथा नहीं। इसी प्रकार वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी है । द्रव्यरूपसे नित्य है और पर्यायरूपसे अनित्य है। अतः किसीको सर्वथा नित्य और किसीको सर्वथा अनित्य कहना भी मिथ्या है। वस्तुके इन अनेक धर्मों में से एक धर्मको ग्रहण करनेका नाम नय है । नय सम्यक भी होते हैं और मिथ्या भी। यदि एक धर्मको ग्रहण करके वस्तुको उस २५ एक धर्मरूप ही सर्वथा कहा जाता है तो वह मिथ्या है। और यदि एक दृष्टि से ही उसे उम रूप कहा जाता है तो वह सम्यक् है। इसलिए वस्तुको कथन करनेके जितने मार्ग हैं वे सब नयवाद हैं। और एक-एक नयको ही यथार्थ मानकर उसीका आग्रह करना एकान्तवाद है। प्रत्येक एकान्तवाद परसमय है-मिथ्यामत है। और सब एकान्तोंको सापेक्षरूपसे स्वीकार करना अनेकान्तवाद है। वही जैनमत है। अतः जैनदर्शन समस्त एकान्तवादी दर्शनोंका ३० सापेक्ष समन्वयरूप है ।।८९५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy