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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
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इंतु भगवदर्हत्परमेश्वर चारुचरणारविंदद्वंद्व वंदनानंदित पुण्यपुंजायमान श्रीमद्राय राजगुरुमंडलाचाय्र्यमहावादवादीश्वर राय वादिपितामह सकलविद्वज्जनचक्रवत्त श्रीमदभयसूरि चारुचरणारविव रजोरंजितललाटपट्ट् श्रीमत्केशवण्णविरचितमप्प गोम्मटसार कर्नाटवृत्तिजीवतत्व प्रदीपिकयो कम्र्मकांडभावचूळि कामहाधिकारं व्याकृतमादुदु ॥
इत्याचार्यश्रीनेमिचन्द्रविरचितायां गोम्मटसारापरनामपंचसंग्रहवृत्तौ जीवतत्त्वप्रदीपिकाख्यायां कर्मकांडे भावचूलिका नाम सप्तमोऽधिकारः ।
इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहकी भगवान् अर्हन्त देव परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलोंकी वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी श्री अमयनन्दी सिद्धान्तचक्रवर्तीके चरणकमलोंकी धूलिसे शोभित ललाटवाले श्री केशववर्णीके द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतस्य प्रदीपिका की भनुसारिणी संस्कृतटीका तथा उसकी अनुसारिणी पं. टोडरमलरचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक भाषाटोकाको अनुसारिणी हिन्दी भाषा टीकामें कर्मकाण्डके अन्तर्गत भावचूलिका नामक सातवाँ अधिकार सम्पूर्ण हुआ ॥७॥
॥ छंद - कन्दपद्य ॥
सेवळ माण्डवे बिसटं बरिवैदु मिद्रियंगळ् नररं ॥ अगतिगे योगवे दुर्व्यसन दिनोंदोंद रिदमसुभृन्निवहम् ॥ १ ॥ बसदागि वसेगे वनकरि बिसिलोळ बंधनदिनिष्पं दुःस्थितियवु । दुर्व्यसन स्पर्शनमोंदरिम सुभृद्गण मैदुविषर्याद बदपुर्व ? ॥२॥ रसनविषयातिलंपट विसारभं बडिशगरण नेत्राश्रुगळ । गणिगोळ तिप्पुदं केळबेसनिग । भक्ष्यदिनुपस्थितं दुःस्थितियम् ॥३॥
पंचेन्द्रिय विषयवासनाएँ मानवको अपनी इच्छानुसार नचाकर दिग्भ्रमित कर देती हैं । संसारके सभी जीवराशि इन पाँचों में से एक-एक इन्द्रियवासना के दुर्व्यसनोंमें फँसकर अनेक भव-भवान्तरों में उत्पन्न होकर दुःख अनुभव करते हैं तो पाँचों इन्द्रिय वासनाओंकी बात ही क्या बतावें ॥१॥
मदोन्मत्त जंगली हाथी धूपमें खड़ा है। चारों ओरसे दावाग्निके स्पर्श से बन्धनमें फँसकर दारुण दुःखका अनुभव करता है। इस प्रकार एक स्पर्शनेन्द्रिय वासना में फँसकर वह इतनी दुःस्थितिको प्राप्त करता है तो पाँचों इन्द्रियोंके वशीभूत होकर ये जीवराशि सुखसे जीवित रह सकता है क्या ? ॥२॥
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मछुवा डोरी की एक ओर सूई और माँस का टुकड़ा बांधकर पानीमें डाल देता है । ३० रसनेन्द्रिय लालसासे आयी हुई मछली उसमें फँसकर आँसू बहाती है । और छटपटाती है । व्यसनि मानव ! देखो, खानेकी अभिलाषासे प्राप्त दुःस्थितिको । तुम्हारी भी यही दुःस्थिति होगी ॥३॥
क- १५७
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