SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 620
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२४८ गो० कर्मकाण्डे भरदोंद्रिय विषयक्कुर वणिसि निमग्ननागे दोः स्थित्यमवम् । खरकर किरणमे पेगुं तुरक्षशिक्षा क्षमावलंम्बन दक्षा ॥ ४ ॥ ओद्रिद्रियद पोंडप्पि बंदोलवि पाय्व शलभनिवहक्कावा - ॥ बद वौः स्थित्यमदं मंदिर मंदिरद दोपनिवहमे पेळगुम् ||५|| 'सरि ग म प ध नि गळोळ नगसरित्समं परियुतिर्श्ववदिद्रियविम् ॥ शरहतिय दौः स्थित्यमनरण्य पक्कणगणं समंतदे पळ्गुम् ॥६॥ कोले पुसि · कळवु· सतीजननिळोलनतिकांक्षि जिनवचन रुचिरहितम् ॥ तोळवंते जगत्त्रयदोलु तोळल्गुं पंचाक्षनायकं मनमनिशम् ॥७॥ विषयमशेषं विषयगे विषदवं विषममेंदोडिनितरिनेना ॥ विषयमनुरदने जिनवाग्विषयं तानागदंदु विषयि दुरात्मम् ॥८॥ गोम्मटसारद वृत्तियदोम्मेयुमिद्रियचयक्के सुविषयमागलु ॥ धम्मनतींद्रिय - सौख्यव नेम्गेयं बुधर्गे मालपुवोंवचचरिये ? ॥९॥ अब देखो, नासेन्द्रिय ( घ्राणेन्द्रिय ) विषय वासनाके परिणामको- - एक नासेन्द्रियकी विषय वासना की ओर आकृष्ट होकर और उसमें तल्लीन रहकर प्राणी दुःस्थितिको प्राप्त १५ करता है (यहाँ उदाहरण नहीं दिया गया है ) इस दुष्ट इन्द्रिय बासनासे क्षमाशील समर्थ व्यक्ति ही शिक्षा पा सकता है यह बात सूर्य किरणकी तरह स्पष्ट है, सत्य है ॥४॥ अब नेत्रेन्द्रियकी वासना - प्रत्येक मन्दिरोंमें देदीप्यमान दीपमालाएँ जगमगाती हैं । उनपर नेत्रेन्द्रिय चपलतामें फँसे अनेकों शलभों ( कीड़े-मकोड़ों ) के समूह मुग्ध होकर आ गिरते हैं और प्राणार्पणकी दुःस्थितिको प्राप्त कर लेते हैं । नेत्रेन्द्रिय वासनाके परिणामोंको वे २० दीपमालाएँ ही साक्षी दे रही हैं ||५|| 'सरिगमपधनि' नामक सप्त स्वरोंके लयबद्ध वालके अनुसार पर्वतोंसे नीचे कलकल करती नदियाँ बहती हैं। उस नादको अनुकरण करनेवाले व्याधोंके धनुषकी सिंजिनके झंकार से मुग्ध होकर शिकारी जीव उसके बाणाघातसे प्राणार्पणको दुःस्थितिको प्राप्त कर लेते हैं । इन तमाशाओंका वर्णन उन अरण्यवासी शिकारीपुरके व्याधबंधुओंके २५ मुखसे ही सुनें तो ठीक रहेगा ||६|| हिंसा, असत्य, चोरी, स्त्रीव्यामोह और अत्याशा के वशीभूत मानव श्रीजिनेश्वरके बताये पंचाणुव्रतों पर रुचि रखता नहीं है और जीवनमें अनेकों दुःख भोगता है । इसी प्रकार तीनों लोक में स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्रेन्द्रिय वासनामें फँसा यह मानव-मन सदा काल-भवभवान्तरमें दुःखोंका अनुभव करता रहता है ||७|| ३० पंचेन्द्रियोंकी विषयवासनाएँ, इन विषयोंपर असक्त लम्पट व्यक्तिको कालकूट विषसे भी अत्यन्त विषमतर हैं। ऐसा कहनेपर भी जो भगवान् जिनेश्वरके बताये मार्गपर चलनेको उद्युक्त नहीं होता अर्थात् इन विषयवासनाओंको त्यागने को तैयार नहीं होता तो इसके बराबर लम्पट और दुरात्मा और कौन होगा ? ॥८॥ ३५ इस गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) की ( केशवण्णकी रची ) कर्नाटक भाषाकी वृत्तिको जो अपने पाँचों इन्द्रियोंके लिए अत्यन्त श्रेष्ठ वस्तु बना लेता है यानी एक बार मन-वचन-कायसे इसका स्वाध्याय कर लेता है ऐसे विद्वान् भव्योंको अतीन्द्रिय सुख-मुक्ति की प्राप्ति हो, इसमें आश्चर्य क्या है । अर्थात् उन्हें मोक्ष प्राप्ति सुलभ है ||९|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy