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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८८३ सर्वार्थसिद्धिपतं यथासंभवमागि निर्वृत्यपर्थ्याप्त दिविजासंयतसम्यग्दृष्टिगळागि मनुष्यगतियुत नववज्ञत्यादिद्विस्थानंगळं कट्टुवरु । २९ । म ३० । म ती ॥ इल्लियु भयोपशमसम्यक्त्वदो एकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानम सत्वमुळ्ळ प्रमत्तसंयतनोलु मिथ्यात्व कर्मोदय मिल्ले । तीर्त्यकरसत्वमुमाहारकसत्वमुमुळ्ळ प्रमत्तदेश संयतासंयतरोळनंतानुबंधिकषायोदय मिल्ल | तीर्थसत्व मुळळरोळ मिश्रप्रकृत्युदय मिल्लेक बोर्ड : तित्थाहारं जुगवं सव्यं तित्थं ण मिच्छ्गादितिये । तं सत्तम्मियाणं तग्गुणठाणं ण संभवइ ॥ - गो. क. ३३३ गा. एंदितु निषेधिसल्पटुदप्युरिदं । क्षायिकसम्यक्त्वग्रहणकालवोळ सामग्रीविशेष मुंटतावुर्ददो :― प्रशस्तप्रकृतीनां प्रतिसमयमनंतगुणवृद्धया चतुःस्थानानुभागबंधं असाताद्यप्रशस्त प्रकृतीनां प्रतिसमयमनंतगुणहान्या १० द्विस्थानानुभागबंधं स्थितिबंधापसरणं च कुर्वन्नपूर्वकरणगुणस्थानं गतः । तत्प्रथमसमयादाषष्ठभागं तान्येव चत्वारि बध्नन् सप्तमभागेऽनिवृत्ति करणे सूक्ष्मसांपराये चैककमेव बध्नाति । उपशांतकषाये आ तच्चरमसमयं नामकर्मावघ्नं क्रमेणावतरन् प्राग्वद्बघ्नन् अप्रमत्तगुणस्थानं गतः । प्रमत्ताप्रमत्तपरावृत्तिसहस्राणि कुर्वन् संक्लेशवशेन प्रत्याख्यानावरणोदयाद्देशसंयतो भूत्वा पुनः अप्रत्याख्यानावरणोदयादसंयतो भूत्वा च प्रमत्तोक्ते द्वे बध्नाति इत्यसावसंयताद्यष्टगुणस्थानः स्यात् । स च बद्धदेवायुष्क १५ ५ हुआ सातिशय अप्रमत्त अवस्थामें ही अधःकरण करता है । वहाँ प्रतिसमय अनन्तगुण विशुद्धिको करता हुआ साता आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका गुड़, खण्ड, शर्करा, अमृतरूप चार प्रकारके अनुभागबन्धको प्रतिसमय अनन्तगुणा बढ़ाता है और असाता आदि अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभाग बन्धको प्रतिसमय घटाते हुए नीम और कांजीरूप दो प्रकारका बाँधता है । तथा सब प्रकृतियोंके स्थितिबन्धको घटाता हुआ अपूर्वकरण गुणस्थानको प्राप्त होता २० | अपूर्व करणके प्रथम समयसे लगाकर छठा भाग पर्यन्त उन्हीं चार स्थानोंको बांधता है। सातवें भाग में अनिवृत्तिकरण में और सूक्ष्मसाम्पराय में एक प्रकृतिक बन्धस्थानको बांधता है। उपशान्तकषाय गुणस्थान में अन्तिम समय पर्यन्त नामकमको नहीं बांधता । क्रमसे उतरते हुए पहले की तरह नामकर्मके बन्धस्थानोंका बन्ध करते हुए अप्रमत्त गुणस्थानको २५ प्राप्त होता है । फिर अप्रमत्तसे प्रमत्तमें और प्रमत्तसे अप्रमत्तमें हजारों बार आवागमन करता हुआ संक्लेशवश प्रमत्तसे प्रत्याख्यानावरणके उदयसे देशसंयत होकर पुनः अप्रत्याख्यानावरण के उदयसे असंयत होकर प्रमत्तकी तरह दो स्थानोंका बन्ध करता है । इस प्रकार द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें असंयत आदि आठ गुणस्थान होते हैं। उसने यदि पूर्व में १. एकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानसत्वमुळ्ळ प्रमत्तंर्ग मिथ्यात्वोदर्याद मिथ्यादृष्टिगुणस्थानप्राप्तियागर्द बुदर्त्य । येक'दोर्ड तो समं प्राग्वद्धनरकायुष्यं गल्लदे मिथ्यादृष्टिगुणस्थानप्राप्तियिल्ल । बद्धक अप्रमत्तगुणस्थानप्राप्तिपूर्व्वकाहारक द्वयबंधमु प्रमत्तगुणस्थानप्राप्तियु घटियिसद् एक दोडे "चत्तारि विखेत्ताई आउगबंधेण होइ सम्मत्त ं । अणुवदमहम्वदाई ण लहइ देवाउगं मोत्तु ॥" एंबागमवचनमुंदर | मिध्यात्वोदय र हितानं तानुबंधिकषायोदयो नास्ति । सासादनगुणस्थानप्राप्तिन्नस्तीत्यर्थः ॥ ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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