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________________ ८८२ गो० कर्मकाण्डे करणगुणस्थानप्रथमसमयं मोवल्गोंडु चरमसमयपथ्यंतमा येकप्रकृतिस्थानमनोंदने कटुवरु । १। तदनंतर समयदोळु सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानमं पोद्दि तद्गुणस्थानचरमसमयपथ्यं तमा एकप्रकृतिस्थानमनोंदने कटुवरु।१। तदनंतरसमयदोळुपशांतकषायगुणस्थानमं पोद्दि तद्गुण स्थानचरमसमयपथ्यंतमा एकप्रकृतिस्थानमनोंदने कटुवरु । १ । तदनंतरसमयदोळुपशांत कषाय५ गुणस्थानमं पोदि तद्गुणस्थानचरमसमयपथ्यंतं नामकर्मबंधरहितरागिद्ध मत्तमवतरणदोळं क्रमदिवमिळिदु अप्रमत्तगुणस्थानमं पोद्दि मुंनिनंते अष्टाविंशत्यादि चतुस्थानंगळं कटुवरु । अंतु कटुत्तलुं प्रमत्ताप्रमत्तपरावृत्तिसहस्रगळं माडुत्तं प्रमत्तगुणस्थानदोळ प्रमताष्टाविंशत्यादि द्विस्थानंगळं कटुत्तं । २८ । २९ । वे ति । संक्लेशवशदिदं प्रत्याख्यानावरणोददिवं देशसंयत गुणस्थानमं पोद्दि प्रमत्तसंयतनंते द्विस्थानंगळं कटुत्तं । २८ । दे। २९ । वे तो ॥ अप्रत्याख्याना१. वरणोदयविमसंयतसम्यग्दृष्टिगळागियुं देशसंयतनंते द्विस्थानंगळं कटुवरितु । २८ दे । २९ ॥ वे ती ॥ उपशमण्यारोहणावरोहणविवर्तयिदं । द्वितीयोपशमसम्यक्त्वदोळसंयताविगुणस्थानाष्टकं संभविसुववु। बद्धदेवायुष्यरुगळोत्तलानुमपूर्वकरणारोहकप्रथमभागमं बिटटु शेषभागशेषगुणस्थानंगळोळेल्लियादोडं मरणं संभविसुगु । मंतु मरणमागुत्तं विरलु सौधम्मकल्पं मोवल्गोंडु बध्नाति । मनुष्यस्तदा असंयतः देशसंयतः प्रमत्तश्च तदादिद्वयं । अस्मिन सम्यक्त्वेऽपि तीर्थबंधप्रारंभात् । अप्रमत्तस्तदादीनि चत्वारि २८ दे २९ दे ती ३० दे आ ३१ दे आ ती। देवस्तदा असंयत ,एव भूत्वा उपरिमप्रैवेयकावसानः मनुष्यगतिनवविंशतिकमेव न तीर्थयुतं प्रारब्धतीर्थबंधस्य बद्धदेवायुष्कवदबद्धायुष्कस्यापि सम्यक्त्वप्रच्युत्यभावात् । तद्वितीयोपशमसम्यक्त्वं वेदकसम्यग्दृष्टयप्रमत्त एव करणत्रयपरिणामैः सप्तप्रकृतीरुपशमय्य गृह्णाति । तत्कालांतर्मुहुर्तप्रथमसमये देवगत्यष्टाविंशतिकादीनि चत्वारि बध्नाति । अयं चोपशमश्रेणिमारोळ करणत्रयं कुर्वनषःप्रवृत्तकरणं सातिशयाप्रमत्त एव करोति । तत्र प्रतिसमयमनंतगुणविशुद्धवृद्धि सातादि. वह प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टी यदि तिर्यश्च है तो असंयत या देशसंयत होकर देवगति सहित अठाईसका बन्ध करता है। यदि मनुष्य है तो असंयत, देशसंयत या प्रमत्त होकर देवगति सहित अठाईसका या देवगति तीर्थसहित उनतीसका बन्ध करता है। इस सम्यक्त्वमें भी तीर्थकरके बन्धका प्रारम्भ होता है। यदि अप्रमत्त है तो अठाईस, उनतीस, तीस, इकतीस चारका बन्ध करता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्वी देव असंयत ही होता है और वह उपरिमन वेयक पर्यन्त ही होता है। वह मनुष्यगति सहित उनतीसको ही बाँधता है, तीर्थकर सहित तीसको नहीं, क्योंकि जिसने देवायका बन्ध करके तीर्थंकरका बन्ध प्रारम्भ किया है जैसे वह सम्यक्त्वसे च्युत नहीं होता वैसे ही जिसने देवायुका बन्ध नहीं किया है वह भी तीथंकरका बन्ध प्रारम्भ करके देवायुका बन्ध करनेपर मरते समय सम्यक्त्वसे च्युत नहीं होता। और सम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्वमें आये बिना प्रथमोपशम सम्यक्त्व नहीं होता। द्वितीयोपशम सम्यक्त्व वेदक सम्यग्दृष्टी अप्रमत्तके ही तीन करणरूप परिणामोंके द्वारा सारें प्रकृतियोंका उपशम होनेपर होता है। उसका फाल अन्तर्मुहूत है। उसके प्रथम समयमें देवगति सहित अठाईस आदि चारका बन्ध होता है। यह द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टी उपशम श्रेणिपर आरोहण करने के लिए तीन करण करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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