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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका ८८१ एंदितु एकविंशतिचारित्रमोहोपशमननिमित्तमागि वेदकसम्यग्दृष्टियप्प महाव्रत्य प्रमत्तसंयतं मुंनं करणत्रयपरिणामदिदं सप्तप्रकृतिगळनुपशमिसि द्वितीयोपशमसम्यक्त्व स्वीकारमं विहितं प्रमितमप्य तद्वितीयोपशमसम्यक्त्व कालप्रथमसमयदोळ देवगतियुताष्टाविशत्यादिचतुःस्थानंगळं कट्टुगुं । २८ । दे । २९ । वेति । ३० । वें आ । ३१ । दे आती । यितु कट्टुत्तमुपशमश्रेण्या रोहणनिमित्तमागि माप करणत्रयंगळोळु मोवल अधःप्रवृत्तकरणमनी सातिशयाप्रमत्तसंयतं माळकुमा करणवोळु नाल्कावश्यकंगळं माळकुमवावुर्वे बोर्ड प्रतिसमय मनंतगुण विशुद्धि वृद्धि साता विप्रशस्त प्रकृतिगणे प्रतिसनयमनंत गुणवृद्धियि चतुःस्थानानुबंधसाताद्य प्रशस्त प्रकृतिगळगे प्रतिसमय मनंतगुणहानिय द्विस्थानानुभागबंध स्थितिबंधापसरण विं प्रवत्तिमुत्तमपूर्वकरणगुणस्थानमं पोर्दुगुमा गुणस्थानप्रथमसमयं मोवल्गोंडु तद्गुणस्थानषष्ठभागपय्र्यंतमा चतुःस्थानंगळं कटुवरु | २८ । दे । २९ । देति ३० । दे । आ ३१ । वे १० आती ॥ सप्तमचरमभागदोळु एकप्रकृतिस्थानमनो रौंदने कटुटुवरु ॥१॥ तदनंतरसमयवोळनिवृत्ति रा केवलिदुगंते इत्युक्तं तदा नारकेषु तद्युतस्थानं कथं बध्नाति ? तन । प्राग्बद्धनरकायुषां प्रथमोपशमसम्यक्त्वे वेदकसम्यक्त्वे वा प्रारब्षतीर्थंबंधानां मिथ्यादृष्टित्वेन मृत्वा तृतीयपृथ्व्यंतं गतानां शरीरपर्याप्तेरुपरि प्राप्ततदन्यतरसम्यक्त्वानां तद्बंधस्यावश्यंभावात् । तत्प्राप्तो खलु साकारोपयोगेन भाव्यं तत्र स कथं संभवेत् ? तन्न, तृतीय पृथ्व्यं तं देवप्रतिबोधनान्निसर्गाद्वा तत्रापि तत्संभवात् । तहि निसर्गजेऽर्थावबोधः स्यान्न वा ? यदि १५ स्यात्तदा तदप्यधिगम जमेव । यदि न स्यात्तदानवगततत्त्वः श्रद्दधीतेति ? तन्न । उभयत्रांत रंगकारणे दर्शनमोहस्योपशमें क्षये क्षयोपशमे वा समाने च सत्याचार्याद्युपदेशेन जातमधिगमजं तद्विना जातं नैसर्गिकमिति भेदस्य सद्भावात् । स चायं प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिर्यदि तिर्यङ् तदा असंयतो देशसंयतो वा भूत्वा देवगत्यष्टाविंशतिकं द्विकके निकट तीर्थंकरके बन्धका प्रारम्भ करते हैं, तब नरकमें तीर्थंकरसहित स्थानका बन्ध कैसे सम्भव है ? होता है ? समाधान - तीसरी पृथ्वी पर्यन्त देवोंके सम्बोधनेसे अथवा सहज स्वभाव से साकारोयोग होता है। ५ समाधान - जिस मनुष्यके पूर्व में नरकायुका बन्ध हुआ, पीछे प्रथमोपशम सम्यक्त्व अथवा वेदक सम्यक्त्व में तीर्थंकरके बन्धका प्रारम्भ करे तो मरते समय मिध्यादृष्टि होकर तीसरे नरक तक जाता है वहाँ शरीर पर्याप्ति पूर्ण होनेपर दोनों सम्यक्त्वों में से एक सम्यक्त्व प्राप्त करके तीर्थंकरका भी बन्ध करने लगता है । शंका-सम्यक्त्वकी प्राप्तिके लिए साकारोपयोग होना चाहिए। वह वहाँ कैसे २५ Jain Education International २० शंका- निसर्गज सम्यग्दर्शन में पदार्थों का ज्ञान होता है या नहीं ? यदि होता है तो वह भी अधिगम ही हुआ । यदि पदार्थोंका ज्ञान नहीं है तो तत्त्वोंके ज्ञानके बिना श्रद्धान कैसा ? ३० समाधान - निसर्गज और अधिगमज सम्यग्दर्शनमें अन्तरंग कारण दर्शनमोहका उपशम, क्षय, क्षयोपशम समान है। उसके होते हुए जहाँ आचार्यादिके उपदेशसे तत्वज्ञान होता है वह अधिगमज है और जहाँ उसके बिना तत्त्वज्ञान होता है वह निसर्गज है । यह इन दोनों में भेद है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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