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________________ ८८० गो० कर्मकाण्डे प्रमत्तप्रमत्तरगळमप्परल्लि असंयतदेशसंयतप्रमत्तसंयतरगळ देवगतियुताष्टाविंशत्यादि विस्थानंगळ कटुवरेके दोडे २८ २९ । वे ती। प्रथमोपशमसम्यक्त्वदोळं तीर्थबंध प्रारंभमुंटप्पुरिद । अप्रमत्तसंयतनोळु अष्टाविंशत्यादि चतुःस्थानंगळं बंधमप्पुवु । २८ । दे। २९ । ति। ३० । आ। ३१ । वे आ तो। देवतियोळु भवनत्रयं मोदलागियुपरिमवेयकावसानमावदिविजमिष्यादृष्टिगळं विशुद्धसाकारोपयोगयुक्तरुगळं प्रथमोपशमसम्यक्त्वम स्वीकरिसि तत्कालांतम्मुंहतपय्यंतं मनुष्यगतियुत नवविंशतिप्रकृतिस्थानमनोंदने कटुवरु । २९ । म। यिल्लि तोत्वंयुतस्थानबंधमिल्लेके बोर्ड विविजमिथ्यादृष्टिगळोळु तीर्थसत्वं खपुष्पोपमानमक्कुमदे ते दोडे तोर्वबंधप्रारंभकमनुष्यं बद्धवायुष्यनादोडमबद्धायुष्यनादोडं सम्यक्त्वविराषकनल्लप्पुरिद तदबंध स्थानाभावमक्कुं। द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं मनुष्यपर्याप्तरोळं निर्वृत्यपर्याप्तदिविजरोळं संभव १० सुगुमवेत बोर्ड: इगिवीसमोहखवणुवसमणणिमित्ताणि तिकरणाणि तहि । पढमं अधापवत्तं करणं तु करेवि अपमत्तो॥ mammmmmmmmmmmmmwwwm mamawwammam करणलब्धिपरिणामैः प्रशस्तोपशमनविधानेन युगपदेवोपशमय्यांतर्मुहूर्तकालं प्रथमोपशमसम्यक्त्वं स्वोकुर्वन् कश्चिदप्रत्याख्यानकषायोदयादेकचत्वारिंशदुरितबंध निवारयन्नसंयतः, कश्चित्प्रत्याख्यानकषायोदयादेकपंचाशद्बन्धमपाकुर्वन् देशसंयतः, कश्चित्संज्वलनोदयादेकषष्टिबंधं निराकूर्वन्नप्रमत्तसंयतो वा स्यात् । सोऽप्रमत्तः प्रमत्ताप्रमत्तपरावृत्तिसंख्यातसहस्राणि करोति । तत्सम्यक्त्वग्रहणप्रथमसमयाद्गुणसंक्रमणेन तत्परिमाणेन यंत्रण कोद्रववन्मिथ्यात्वद्रव्यं त्रिधा करोति । तेत्र नारकस्तदा असंयत एव भूत्वा धर्मादित्रये नवविंशतिकादिद्वयं बध्नाति २९ म ३० म ती । शेषपृथ्वीषु मनुष्यगतिनवविंशतिकमेव । नन्वविरदादिचत्तारितित्थयरबंधपारंमया और यदि सम्यक्त्वमोहनीय मिश्रमोहनीयका सत्त्व नहीं है तो पाँच प्रकृतियाँ हैं। अनादिमिथ्यादृष्टिके भी पांच ही प्रकृतियाँ होती हैं। इन प्रकृतियोंको क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करणलब्धिरूप परिणामोंके द्वारा प्रशस्तोपशम विधानसे एक साथ उपशमाकर अन्तर्मुहूर्त कालके लिए प्रथमोपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न करके कोई जीव अप्रत्याख्यान कषायके उदय होनेसे इकतालीस पाप प्रकृतियोंके बन्धको रोकता हुआ असंयत सम्यग्दृष्टी होता है। अथवा कोई जीव प्रत्याख्यान कषायके उदयसे इकावन प्रकृतियोंके बन्धको रोककर देशसंयत होता है। कोई संज्वलनके उदयसे इकसठ प्रकृतियोंके बन्धको रोकता हुआ अप्रमत्त संयत होता है। वह अप्रमत्त संख्यात हजार बार अप्रमत्तसे प्रमत्त और प्रमत्तसे अप्रमत्तमें आवागमन करता है। उस प्रथमोपशम सम्यक्त्वके ग्रहणके प्रथम समयसे गुणसंक्रमणके द्वारा उस सम्यक्त्वरूप परिणामसे मिथ्यात्वके द्रव्यको तीन रूप करता है। जैसे चाकीसे दलनेपर कोदोंके तीन रूप हो जाते हैं। नारकी तो असंयत ही रहकर धर्मा आदि तीन नरकोंमें उनतीस और तीसका बन्ध करता है। शेष नरकोंमें मनुष्यगति सहित उनतीसका बन्ध होता है। शंका-आगममें कहा है कि अविरत आदि चार गुणस्थानवाले मनुष्य ही केवली १. गुडखंडशर्करामृत-विषहालाहलशक्तियं निंबकांजीरंगळ सदृशमप्पंतु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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