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________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका ८७९ देवप्रतिबोधनप्रदं । अथवा तन्निसर्गादधिगमाद्वा सम्यक्त्वमुत्पद्यते एंदितु पेळल्पटु दिल्लि निसर्ग बुदु स्वभावमक्कुमधिगम में 'बुदर्थावबोधमत्रकुमल्लि निसर्गजवळत्यबोधमुंटो मेणिल्लो तलातुमर्थावबोध मुंटक कुमप्पोडदुवुमधिगमजमक्कु मत्यतिर मल्ते त्तलातुमर्त्या व बोधरहितमक्कुमप्पोर्ड तनवबुद्धतत्वं गर्त्यश्रद्धान में दिते वोडदु वोषमल्लेर्क बोर्ड निसर्गजदोळमधिगमजदोळमंतरंगकारणं समानमक्कुमदाउदे दोर्ड दर्शनमोहोपशममुं दर्शनमोहक्षयमुं दर्शनमोहक्षयोपशममु- ५ मेंदीयंत रंगकारण मुंटागुत्तिरलावुदो बाचार्य्यादिगळुपदेशमिल्लदेयुं सम्यक्त्वं पुदुगुमदु नैसगिकमक्कु मावुदोदाचार्य्यादिगळिनर्थोपदेश पूर्वकं जीवाद्यधिगमनिमित्तमवधिगमजर्म दिर्त रडरोळमिदु भेवमक्कुमकारणविंदं । दर्शन मोहोपशमविनादुदुपशमसम्यक्त्वमक्कुम पुर्वारिदं । नैसग्गिकं देशनानिरपेक्षकमुमकुम' बुदत्थं ॥ तिथ्यंचरो संज्ञिपंचेद्रियपर्थ्याप्त गर्भजविशुद्धसाकारोपयोगयुक्तं मिथ्यादृष्टिप्रथमोपशम- १० सम्यक्त्वमं स्वीकरिसुत्तमप्रत्याख्यानावरणोदर्यादिदमसंयतन कुं । प्रत्याख्यानावरणोदर्यादिदं देशसंयतनुमक्कुमा प्रथमोपशमसम्यक्त्व कालांतर्मुहूतं पय्र्यंतं देवगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानमनोंदने कट्टुबरु ॥ २८ ॥ दे ॥ मनुष्यगतियोऴ प्रथमोपशमसम्यक्त्वमक्कुमप्पोडं : चत्तारि विछेत्ताई आउगबंधेण होइ सम्मत्तं । अणुवदमहम्वदाई ण लहइ देवाउगं मोतुं ॥ एंदितु मनुष्यरुगळं नाकुं गतिगन् बद्धायुष्यरादोडं सम्यक्त्वमं स्वीकरिसुवरु । तत्रापि देवायुष्यमल्ल दितरायुस्त्रितयं सत्वमुळ्ळ जीवनोळ अणुव्रत महाव्रतंगळागवु । एंदितु चतुर्गातिबद्धायुष्यरुमबद्धायुष्यरुगळुमप्प विशुद्धसाकारोपयोगयुक्त मिथ्यादृष्टिजी बंगळु सप्तप्रकृतिगळनुपशमिति अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यानावरणसंज्वलन- देश वातिस्पर्द्धकोदयंगळदमसंयतनुं देश संघतनुमअनाकारोपयोगस्ततः साकारोपयोग एव, सोऽपि चत्तारि विखेत्ताई आउगबंधेण होइ सम्मत्तं । अणुवदमहदाई ण लहद्द देवाउगं मोत्तुं ॥ इत्यबद्धायुको बद्धायुष्को वा, सोऽपि सादिरनादिर्वा । तत्र सादिर्यदि सम्यक्त्व मिश्रप्रकृतिसत्त्वस्तदा सप्तप्रकृतीः तदसत्त्वस्तदा सोऽप्यनादिरपि मिथ्यात्वानंतानुबंधिनः पंचैव क्षयोपशमविशुद्धि देशनाप्रायोग्यताजन्मवाला ग्रहण नहीं करता । अतः गर्भज या उपपाद जन्मवाला होना चाहिए। वह भी क्लेशी न हो, अतः विशुद्ध परिणामी होना चाहिए। वह भी दर्शनोपयोग अवस्था में न हो, ज्ञानोपयोगकी अवस्था में हो। कहा है २५ 'पूर्व में चारों गतिको आयु बाँधी हो फिर भी सम्यक्त्व हो सकता है । किन्तु अणुव्रत और महाव्रत देवायुको छोड़ अन्य आयुका बन्ध जिसके हुआ है उसके नहीं होते।' Jain Education International -: For Private & Personal Use Only १५ इस वचनसे वह बद्धायुष्क हो या अबद्धायुष्क हो, सादि मिध्यादृष्टि हो या अनादि ३० मिध्यादृष्टि हो । यदि वह सादि मिध्यादृष्टि है और उसके सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीका सत्व है तो उसके तीन दर्शनमोह और चार अनन्तानुबन्धी ये सात प्रकृतियां हैं । क- १११ २० www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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