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________________ ९४४ गो० कर्मकाण्डे आ स्थानोदय प्रकृतिगळोळु अप्रशस्तंगळु नारकरोळं साधारणवनस्पतिगळोळं सर्वसूक्ष्-मं गळोळ सव्वलब्ध्यपर्याप्तरुगळोळमक्कुमप्पुरिवमवर पंचकालंगळ सर्वोदयस्थानंगळोळेल्लमेकैकभंगमेयप्पुवु । शेषैकविकलासं जिजीवंगळुदयस्थानंगळोळ यशस्कोत्तिद्वयोदयकृतद्विभंगगळप्पुवु ॥ सण्णिम्मि मणुस्सम्मि य ओघेक्कदरं तु केवले वज्जं । सुभगादेज्जजसाणि य तित्थजुदे सत्थमेदीदि ॥६०१॥ संज्ञिनि मनुष्ये च ओघेष्वेकतरस्तु केवले वनं । सुभगादेययशांसि च तीर्थयुते शस्तमेतीति ॥ संजिपंचेंद्रियदोळं मनुष्यनोळं संस्थानाविसामान्यभंगंगळेल्लमप्पुवु । केवलज्ञानदोलु वज्र१० ऋषभनाराचसंहननमो देयकुं। सुभगादेययशस्कोत्तित्रयोदयमेयवकुमेके बोर्ड असंयतनोळु दुभंगत्रयक्के व्युच्छित्ति यादुवप्पुरिद । तीर्थयुतकेवलज्ञानदोळ प्रशस्तप्रकृतिगल्गुदयमेयप्पुदरिदमल्लिय स्थानंगळोळेकैकभंगमेयक्कु मे दोडे चरमपंचसंस्थानमुमप्रशस्तविहायोगतियु दुःस्वरमुमिल्लप्पुरिवं ॥ १८ तत्रोदयप्रकृतिषु नारके साधारणवनस्पती सर्वलब्ध्यपर्याप्ते वाऽप्रशस्ता एवोद्यन्तीति तत्पंचकालसर्वोदयस्थानेषु भंग एकैकः । शेषकेन्द्रियविकलासंझ्युदयस्थानेषु यशस्कोतिद्वयकृती द्वौ द्वो भंगो भवतः ॥६००॥ संज्ञिजीवे मनुष्ये च संस्थानादिसामान्यकृताः सर्वे भंगा भवन्ति । केवलज्ञाने वज्रवृषभनाराचसंहननं सुभगादेययशस्कोर्तय एवोद्यन्ति, "दुर्भगत्रयादेयस्यासंयते छेदात् ।" सतीर्थे च प्रशस्तमेव तेन तत्स्थानेष्वेकैकः, चरमपंचसंस्थानाप्रशस्तविहायोगतिदुःस्वराणां तत्रानुदयात् ॥६०१॥ २० उन उदय प्रकृतियों में-से नारकी, साधारण वनस्पति, सब सूक्ष्म और सब लब्ध्यपर्याप्तकोंमें अप्रशस्त प्रकृतियोंका ही उदय होता है। अतः उनके पाँच काल सम्बन्धी सब उदयस्थानोंमें एक-एक भंग है। शेष एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, असंझी पंचेन्द्रियमें भी अप्रशस्त प्रकृतियोंका ही उदय है। किन्तु यश कीर्ति और अयश-कीर्ति में से किसी एकका उदय होता है अतः उनके उदयस्थानोंमें दो-दो भंग होते हैं एक यशःकीर्ति सहित और एक अयशःकीर्ति सहित उदयस्थान ॥६००॥ ___संज्ञी जीव और मनुष्यमें छह संस्थान, छह संहनन, विहायोगति आदि. पाँच युगलों में से एक-एकका ही उदय होनेसे सामान्यकी तरह सब ग्यारह सौ बावन भंग होते हैं। केवलज्ञान सम्बन्धी स्थानोंमें वजवृषभनाराचसंहनन, सुभग, आदेय, यश कीर्तिका ही उदय होता है अतः उनमें छह संस्थान और दो युगलों में से एक-एकका उदय होनेसे चौबीस भंग होते हैं। तीथकर केवलीके अन्तके पाँच संस्थान, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका उदय भी नहीं होता। सब प्रशस्त प्रकृतियोंका ही उदय होता है। अतः उनके उदयस्थानोंमें एक-एक ही भंग होता है ॥६०१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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