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________________ ६६८ गो० कर्मकाण्डे पूर्वोक्तोद्वेल्लनप्रकृतिगळु पदिमूरु १३ । विध्यात ६७ । अथा १२१ । गुणसंक्रमप्रकृति. गळेप्पत्तग्दु ७५ । सर्वसंक्रम प्रकृतिगळय्वत्तरडु ५२ ॥ अनंतरं स्थित्यनुभागंगळ बंधक्कं प्रदेशसंक्रमणक्कं स्वामित्वगुणस्थान संख्ययं पेळ्दपरु : ठिदियणुभागाणं पुण बंधो सुहुमोत्ति होदि णियमेण । बंधपदेसाणं पुण संकमणं सुहुमरागोत्ति ॥४२९।। स्थित्यनुभागानां पुनब्बं वः सूक्ष्मसांपरायपध्यंतं भवति नियमेन । बंधप्रदेशानां पुनः संक्रमणं सूक्ष्मसांपरायपय॑तं ॥ स्थित्यनुभागंगळबंधं मत्ते सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानपर्यंतमक्कुमेके दोडे ठिदि अगुभागा कसायदो होति यदु सूक्ष्मलोभकषायोदय मुल्लि पय्यंतं यथासंभवमागि स्थित्यनुभागबंधमक्कु१० मल्लिदं मेले कारणाभावे कार्य्यस्याप्य भावः यदितु स्थित्यनुभागबंधमिल्लप्पुरिंदमेकसमयस्थिति. कमप्प योगहेतुकसातबंधक्के प्रकृतिप्रदेशबंधमात्रमयक्कु नियमदिदं । मत्ते बंधप्रदेशंगळ संक्रमणमुं सूक्ष्मसांपरायपय्यंतं यथासंभवमागियक्कु मे दोडे बंधे अधापवत्तो ये दु स्थितिबंधमुळ्ळल्लिपर्यंतं प्रदेशसंक्रममुंटप्पुरिदं ॥ अनन्तरं पंचभागहारंगळगल्पबहुत्वमं गाथाषट्कदिदं पेब्दपरु : सव्वस्सेकं रूवं अमंखभागो दु पल्लछेदाणं । गुणसंकमो दु हारो ओकड्ढुक्कड्ढणं तत्तो ॥४३०॥ सर्वस्यैक रूपमसंख्यभागस्तु पल्यच्छेदानां । गुणसंक्रमस्तु हारोऽयकर्षणोत्कर्षणस्ततः ॥ वज्रर्षभनाराचं पुंवेदः संज्वलनत्रयं चेति सप्तचत्वारिंशदूनद्वाविंशतिशतं गुणसंक्रमप्रकृतयो भवंति, पंचसप्ततिरित्यर्थः ॥४२८॥ अथ स्थित्यनुभागबंधस्य प्रदेशबंधसंक्रमणस्य च गुणस्थानसंख्यामाह स्थित्यनुभागयोबंधः पुनः सूक्ष्मसांपरायपयंतमेव स्यात्, तयोः कषायहेतुत्वात् । सातस्य तदुपरि बंधेऽपि तस्य प्रकृतिप्रदेशमात्रत्वात् । पुनः प्रदेशबंधानां संक्रमणमपि सूक्ष्मसांपरायपयंतमेव 'बंधे अधापवत्तो' इति स्थितिबंधपर्यंतमेव तत्संभवात् ॥४२९॥ अथ पंचभागहाराणामल्पबहुत्वं गाथाषट्केनाहतीर्थकर, वनवृषभनाराच, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध मान माया, इन सैंतालीस प्रकृतियोंसे रहित एक सौ बाईस अर्थात् पिचहत्तर प्रकृतियों में गुणसंक्रमण होता है ।।४२७-४२८॥ आगे स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धके संक्रमणके गुणस्थानोंकी संख्या कहते हैं स्थिति और अनुभागका बन्ध सूक्ष्म साम्पराय पर्यन्त ही होता है क्योंकि वे दोनों बन्ध कषायहेतुक होते हैं । यद्यपि सातावेदनीय सूक्ष्मसाम्परायके बाद भी बँधता है तथापि वहाँ उनका प्रकृतिबन्ध प्रदेशबन्ध ही होता है। पुनः बन्धको प्राप्त हुए परमाणुओंका संक्रमण ३० भी सूक्ष्म साम्पराय पर्यन्त ही होता है; क्योंकि 'बंधे अधापवत्तो' इस गाथाके अनुसार जहाँ तक स्थितिबन्ध होता है वहीं तक संक्रमण होता है ।।४२९।। आगे पाँच भागहारोंका अल्प-बहुत्व छह गाथाओंसे कहते हैं १५ २० २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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