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________________ कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अनंतरं दर्शनावरणीय भुजाकारबंधं संभविसुव स्थानंगळर्ग प्रकृतिसंख्येयं पेळदपरु णव छक्क चउक्कं च य विदियावरणस्स बंधठाणाणि । भुजगारपदराणि य अवद्विदाणिवि य जाणाहि ॥ ४५९ ॥ नवषट्कचतुष्कं च च द्वितीयावरणस्य बंधस्थानानि । भुजाकाराल्पतराश्चावस्थिता अपि च जानीहि ॥ ६८९ नवषट्कचतुष्क प्रकृतिस्थानत्रयं द्वितीयावरणप्रकृतिबंधस्थानं गळप्पुवल्लि दर्शनावरणसर्ध्वोतर प्रकृतिगळो भत्तक्कम दु स्थानमक्कुमवरोळु स्त्यानगृद्धित्रयरहितमागि षट् प्रकृतिगळों बु स्थानमक्कुमवरो निद्राप्रचलोन चतुष्प्रकृतिगळगोंदु स्थानमक्कुमिती मूरुं स्थानंगळगे भुजाकार दर्शनावरणस्य बंधस्थानानि नवप्रकृतिकं, स्त्यानगृद्धित्रयेण विना षट् प्रकृतिकं, पुनर्निद्राप्रचले विना चतुःप्रकृतिकं चेति त्रीणि । तेषां भुजाकाराल्पतरावस्थितबंषाः, अपिशब्दादवक्तव्यबंधौ च स्युरिति जानीहि । १० तद्यथा--- उपशमश्रेण्यवरोहको पूर्वकरणद्वितीयभागे चतुःप्रकृतिकं बध्वा तत्प्रथमभागेऽवतीर्णः षट्प्रकृतिकं बध्नाति । प्रमत्तो देशसंयतोऽसंयतो मिश्रो वा षट्प्रकृतिकं बध्नन्मिथ्यादृष्टिर्भूत्वा वा प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिः सासादनो भूत्वा नवप्रकृतिकं बध्नाति इति भुजाकारी द्वौ स्तः । प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुखो मिथ्यादृष्टिरनिवृत्तिकरणचरम समये नवप्रकृतिकं बघ्नन्ननंतरसमयेऽसंयतो देशसंयतोऽप्रमत्तो वा भूत्वा षट्प्रकृतिकं बध्नाति । १५ तथा तत उपशमकः क्षपको वाऽपूर्वकरणप्रथमभागचरमसमये षट्प्रकृतिकं बघ्नन् द्वितीय भाग्रप्रथमसमये चतुः प्रकृतिकं बघ्नातीत्यल्पतरौ द्वौ भवतः । मिध्यादृष्टिः सासादनो वा नवप्रकृतिकं मिश्राद्यपूर्वकरणप्रथमभागतः षट्कृतिकं अपूर्वकरणद्वितीय भागा दिसूक्ष्मसां परायांतः चतुःप्रकृतिकं च बध्नन् अनंत रसमये तदेव दर्शनावरण के बन्धस्थान नौ प्रकृतिरूप, स्त्यागृद्धि आदि तीनके बिना छह प्रकृतिरूप, निद्रा प्रचलाके बिना चार प्रकृतिरूप इस प्रकार तीन ही होते हैं। उनमें भुजकार बन्ध, अल्पतर बन्ध, अवस्थित बन्ध और अपि शब्दसे अवक्तव्यबन्ध होते हैं। वे इस प्रकार हैं उपशम श्रेणिसे उतरनेवाला अपूर्वकरणके दूसरे भाग में दर्शनावरणकी चार प्रकृतियोंका बन्ध करके पुनः उसीके प्रथम भागमें उतरनेपर छह प्रकृतियोंका बन्ध करता है । यह एक भुजकार हुआ। प्रमत्त, देशसंयत, असंयत अथवा मिश्र गुणस्थानवर्ती छह प्रकृतियोंका बन्ध करके मिथ्यादृष्टि होकर अथवा प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टी सासादन गुणस्थानमें आकर it प्रकृतियों का बन्ध करता है। इस प्रकार दो भुजकार होते हैं। प्रथमोपशम सम्यक्त्वके अभिमुख मिध्यादृष्टि अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके अन्तिम समय में नौ प्रकृतिरूप स्थानका बन्ध करके अन्तर समय में असंयत, देशसंयत, अथवा अप्रमत्त होकर छह प्रकृतिरूप स्थानका बन्ध करता है । यह एक अल्पतर हुआ । उपशमक अथवा क्षपक अपूर्वकरणके प्रथम भाग के अन्तिम समयमें छह प्रकृतिरूप स्थानका बन्ध करके दूसरे भागके प्रथम समयमें चार प्रकृतिरूप स्थानका बन्ध करता है। एक अल्पतर यह हुआ । इस तरह दो अल्पतर बन्ध होते हैं । ३० मिध्यादृष्टि अथवा सासादन नौ प्रकृतिरूप स्थानको बाँधकर मिश्रसे लेकर अपूर्वकरणके प्रथम भाग पर्यन्त छह प्रकृतिरूप स्थानको बाँधकर तथा अपूर्वकरणके दूसरे भागसे Jain Education International For Private & Personal Use Only २० २५ www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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