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________________ ८२४ गो० कर्मकाण्डे भावपुरुष। द्रव्यपुरुष भावस्त्री। द्रव्यपुरुष भावपंड एंदितु नवविधमप्परल्लि । तीर्थकर परम देवरुगळनिबरुं यदिदं भावदिदं पुवेदिगळेयप्परु। शेषमनुष्यरुगळु यथासंभवमप्पर । पर्याप्तमनुष्य भावपंडवेदिगळोळु मिथ्यादृष्टियादियागि अनिवृत्तिकरणषंडवेदभागे पथ्यंतमोभत्तं गुणस्थानंगळप्पुवु। अल्लि यथाप्रवचनं तथा सर्वनामबंधस्थानंगळप्पुवु। भावस्त्रीवेविगळोळुमंते सर्वबंधस्थानंगळुमप्पुवु । ई षंडस्लोवेदि क्षपकरोळु देवगतितीर्थयुत नवविंशतियुमेकत्रिंशत्स्थानमुं बंधमिल्लेके दोडिल्लि चोदने-तीर्थकरपरमदेवरुगळ्गे द्रदिदं भावदिदं पुंवेदमेयक्कुमप्पुरिंद। मी क्षपकश्रेण्यारूढरप्प षंढस्त्रीवेदिगळोळेतु तीर्थदेवगतियुत नवविंशतिस्थानमुं देवगति तोत्थं आहारकद्वययुतकत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमुमितो तो|युतस्थानद्वयबंधाबंधविचारमेणिंदमें दोडे पेळ्वं। सौधर्मकल्पमादियागि सर्वार्थसिद्धिपय्यंतमाद कल्पजकल्पातीतज तीर्थसत्कर्मरुगळ्गं धर्मादिमेघावसानमाद पृथ्विज तीर्थसत्कर्मरुगळ्गं गर्भावतरणादिपंचकल्याणंगळ द्रव्यभावपुंवेबंगळुमप्पुवु। चरमांगरागि तीर्थरहितरागिद्रव्यपुरुषभावषंडस्त्रीवेदिगळ केवलिश्रुतकेवलिद्वय श्रीपादोपांतदोलिर्दु षोडश भावनाबलदिदं तीर्थबंधमं प्रारंभिसि' तीर्थसत्कर्मरागिई असंयत. देशसंयतप्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानवत्तिगळोळ असंयतदेशसंयतरुगळ्गे परिनिष्क्रमणकल्याणसमन्वित१५ मागि विकल्याणमक्कुं। प्रमत्ताप्रमत्ततोत्थं सत्कर्मरुगळ्गे दीक्षाकल्याण मिल्ल । केवलज्ञानकल्या णादिकल्याणद्वितयमक्कु-। मंतवग्गंळु क्षपकश्रेण्यारोहणं माळ्पागल षंडस्त्रीवेदंगळवमं पत्तविटु पुंवेदोदयदिदमे क्षपकश्रेण्यारोहणमं माळपरे वितुपेवेमेकेंदोडे 'वेदादाहारोत्ति य सगुणट्ठाणाणमोघंतु" एंदितु षंढवेददोळं स्त्रीवेददोळं तीर्थबंधमुंटप्पुरिदं । भावपुवेदिगळोळमंत मिथ्यादृष्टयादिपुवेदोदयभागानिवृत्तिकरणपरियंतमाद गुणस्थानंगळो भत्तुमप्पुवु । आ गुणस्थानंगळोळ यथाप्रवचनं तथाऽष्ट नामकर्मबंधस्थानंगळप्पुर्व बुदत्थं ॥ सर्वाणि, न च स्त्रीषंढक्षपके देवगतितीर्थयुतनवविंशतिकैकत्रिंशत्के, चरमांगाणां केषांचित्तत्र तीर्थबंधसंभवेऽपि क्षपकश्रेण्यां पंवेदोदयेनैवारोहणात् । तीर्थबंधप्रारंभश्चरमांगाणामसंयतदेशसंयतयोस्तदा कल्याणानि निष्क्रमणादीनि श्रोणि, प्रमत्ताप्रमत्तयोस्तदा ज्ञाननिर्वाणे द्वे, प्राग्भवे तदा गर्भावतरादोनि पंचेत्यवसेयम् । क्षपक श्रेणिवालेके देवगति तीर्थंकर सहित उनतीसका और इकतीसका स्थान नहीं होता। २५ यद्यपि किन्हीं चरम शरीरियोंके वहाँ तीर्थकरका बन्ध सम्भव भी है किन्तु वे पुरुषवेदके उदयसे हो श्रेणि चढ़ते हैं। यदि चरमशरीरियोंके तीर्थकरके बन्धका प्रारम्भ असंयत और देशसंयत गुणस्थानोंमें होता है तब उनके तप आदि तीन ही कल्याणक होते हैं। यदि प्रमत्त अप्रमत्तमें तीर्थकरका बन्ध होता है तो उनके ज्ञान निर्वाण दो ही कल्याणक होते हैं। यदि पूर्वभवमें तीर्थकरका बन्ध किया है तो गर्भावतरण आदि पांचों कल्याणक होते हैं, इतना ३० विशेष जानना। १. "तित्वयरसत्यकम्मा तदियभवे तब्भवे हु सिज्झेह।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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