SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 301
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सव्वापज्जत्ताणं दोणिवि काला चउक्कमेयक्खे | पंच वि होंति तसाणं आहारस्सुवरिमचउक्कं ॥ ५८५ ।। सपर्याप्तानां द्वावपि कालौ चतुष्कमेकाक्षे | पंचापि भवंति त्रसानामाहार शरीरस्योपरितनचतुष्कं ॥ सध्या पर्याप्तजीवंग विग्रहगतिय काम्मणशरीरकाल मुमौवारिकशरीर मिश्रकालमु- ५ मरडेय । एकेंद्रियंगळगे विग्रहगतिशरीर मिश्रशरीरपर्य्याप्ति उच्छ्वासनिश्वासपर्य्यामिगळे ब नाल्कुं कालंगळप्पुवु । श्रसजीवंगळगे पंचकालंगळमप्पुवु । आहारकशरीरदोळु विग्रहगतिर्वाज्जतोपरितन चतुःकालंगळप्पुवु । अनंतरं समुद्घातकेवलियोऴ संभविसुव कालंगळं पेदपरु : कम्मोरालियमिस्सं ओरालुस्सा समास इदि कमसो । काला हु समुग्धादे उवसंहरमाणगे पंच ॥५८६ ॥ कार्म्मणौवारिक मिश्रमौदारिकोच्छ्वास भाषा इति क्रमशः । कालाः खलु समुद्घाते उपहरमाणे पंच ॥ कार्म्मणशरीरकाल मौवारिक मिश्रकाल मुमौदारिकशरीरपर्य्याप्तिकाल मुमुच्छ्वासनिश्वास - पर्याप्तिकालमुं भाषा पर्य्याप्तिकाल में ब पंचकालंगळोळ समुद्घातोपसर्पणोपसंहरमाणरोळु क्रम- १५ विवं सूक्ष्मवं कालंगळप्पुववाउवे दोर्ड : ९२९ ओरालं दंडदुगे कवाडजुगले य तस्स मीसंतु । पदरे य लोगपुरे कम्मे व य होदि णायव्वो ॥५८७ ॥ औदारिक शरीरपर्याप्तकालं दंडद्वयदोळक्कुं । कवाटयुगळदोळु तदौदारिकमिश्रकाल मक्कुं । ते कालाः सर्वलब्ध्यपर्याप्तेष्वाद्यौ द्वौ । एकेन्द्रियेषु आद्याश्चत्वारः । त्रसेषु पंच | आहारकशरीरे माद्यं २० विनोपरितनाश्चत्वारो भवन्ति ॥ ८८५ ॥ समुद्वातकेवलिनि खलु कालाः कार्मणः औदारिक मिश्रः औदारिकशरीरपर्याप्तिः उच्छास निश्वासपर्याप्तिः भाषापर्याप्तिवचेति क्रमेण पंच । अमी उपसंहरमाणके एव उपसर्पमाणके त्रयस्यैव संभवात् ॥ ५८६ ॥ तद्यथा- tosद्वये कालः मोदारिकशरीरपर्याप्तिः, कवाटयुगले तन्मिश्रः प्रतरयोर्लोकपूरणे च कार्मण इति २५ वे काल सब लब्ध्यपर्याप्तकों में आदिके दो ही हैं। एकेन्द्रियोंमें आदिके चार हैं । समें पाँचों हैं। आहारक शरीर में पहले के बिना ऊपरके चार काल हैं । ५८५ ॥ समुद्घात केवली में कार्मण, औदारिक मिश्र, औदारिक शरीर पर्याप्ति, उच्छ्वासनिःश्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति ये क्रमसे पांच काल होते हैं । ये पाँचों काल प्रदेशोंको संकोचते समय होते हैं। फैलाते समय तीन ही होते हैं ||५८६ ॥ वही कहते हैं दण्ड रूप करने तथा समेटने रूप दोमें औदारिक शरीर पर्याप्तिकाल है। कपाट Jain Education International १० For Private & Personal Use Only ३० www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy