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________________ अणियट्टी अद्धाए अणस्स चत्तारि होंति पव्वाणि । सायरलक्खपुधत्तं पल्लं दूरावकिट्टि उच्छिट्टं ॥-लब्धि . ११३ गा. अनिवृत्तिकरण प्रथमसमयवोळनंतानुबंधिग स्थितिसत्वं सागरोपमलक्ष पृथक्त्वमकुं । स्थितिकांडकायायाममुं स्थित्यनुसारमपुर्दारव पृथ्वमं नोडलु संख्यातगुणहीनमागियुं पल्या संख्यातैक भागमागि लक्षिस पडुमित स्थितिकांडकंगळ निवृतिकरणदोळु संख्यातबहुभागकालं पोगुत्तं विरलेकभागावशेषमादागळ संख्यात सहस्रं गळप्पुवर्वारिदं कुंदि स्थितिसत्वमसंज्ञिजीवस्थितिबंध समानमप्प सागरोपमसहस्त्रप्रमितमक्कुमल्लिदं मेलेयु पल्यसंख्यातैकभागमात्रायामस्थितिकांडक१० संख्यातगुणायामानि संख्यातसहस्राणि स्थितिकांडकानि घातयन् तावंति स्थितिबंधापसरणानि कुर्वन् एकैकस्मिन् स्थितिकांडकघातकाले पूर्वतोऽनंतगुणायामानि तावत्यनुभाग कांडकानि घातयं वा पूर्वकरणं नीत्वानंतरसमयेऽनिवृत्तिकरणं गच्छति । ५ ૮૮૬ गो० कर्मकाण्डे परिणाममं मोरि तदनंतरसमयदोळ निवृत्तिकरणपरिणाममं पोद्दि तत्प्रथमसमयं मोवल्गोंड क्रियमाणविशेष सुंटदाउद दोर्ड : : अणिट्टे अद्धाए अणस्स चत्तारि होंति पव्वाणि । सायरलक्खपुधत्तं पल्लं दूरावकिट्टिउच्छिट्ठ ॥ १५ तत्प्रथमसमयेऽनंतानुबंधिनां स्थितिसत्त्वं सागरोपमलक्षपृथक्त्वमात्रं । तत उपरि तत्कालसंख्यातबहुभागे गते पल्यसंख्यातैकभागायामैः संख्यातसहस्र स्थितिकांड कैर्हीनमसंज्ञिस्थितिबंध समं सहस्रसागरोपममात्रं । तत उपरि तदायामस्तावद्भिस्तैर्हीनं चतुरिद्रियस्थितिबन्धसमं शतसागरोपममात्रं । तत उपरि तदायामैस्तावदिद्मस्तैर्हीनं त्रोंद्रियं स्थितिबन्धसमं पंचाशत्सागरोपममात्रं । तत उपरि तदाया मैस्तावद्भिस्तैर्हीनं द्वींद्रियस्थितिबन्धसमं पंचविशतिसागरोपममात्रं । तत उपरि तदायामस्तावद्भिस्तैर्हीन मेकेंद्रिय स्थितिबन्धसममेकसागरोपममात्रं । २० पूर्व से असंख्यातगुणे आयाम -- समयका प्रमाण - को लेकर संख्यात हजार स्थिति काण्डकोंका घात करता है अर्थात् जो पूर्व में कर्मोकी स्थिति सत्ता में थी उसको घटाता है । उतने ही नये कर्मो स्थितिबन्धका अपसरण करता है-स्थितिबन्धको घटाता है। एकएक स्थितिकाण्डक के घात करनेके कालमें पूर्व से अनन्तगुणे अनुभाग के अविभाग प्रतिच्छेदादि रूप आयामको लिये अनुभागकाण्डकोंका नाश करता है। ऐसा करते हुए अपूर्वकरणको पूर्ण २५ करता है । उसके अनन्तर समय में अनिवृत्तिकरण करता है । अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में अनन्तानुबन्धीका स्थितिसत्त्व या सत्त्वरूप स्थिति पृथक्त्व लाख सागर प्रमाण है । उसके ऊपर उस अनिवृत्तिकरण के काल में संख्यातका भाग देकर, एक भाग बिना शेष बहुभाग प्रमाण काल बीतनेपर - पल्यके संख्यातवें भाग प्रमाण एक-एक काण्डक - एक-एक बार इतनी स्थिति घटाना, ऐसे संख्यात हजार स्थितिके काण्डकों३० के द्वारा एक हजार सागर प्रमाण स्थिति रहती है जो असंज्ञीके स्थितिबन्ध जितनी है । उसके ऊपर उतने ही प्रमाण उतने ही काण्डकोंके द्वारा चौइन्द्रियके बन्धके समान सौ सागरकी स्थिति रहती है। उससे ऊपर उतने ही प्रमाणवाले उतने ही काण्डकों द्वारा तेइन्द्रियके स्थितिबन्धके समान पचास सागरकी स्थिति रहती है । उसके ऊपर उतने ही प्रमाणवाले उतने ही काण्डकोंके द्वारा दोइन्द्रियके स्थितिबन्धके समान पच्चीस सागरकी स्थिति रहती ३५ है | उसके ऊपर उतने ही आयामको लिये काण्डकोंके घटानेपर एकेन्द्रियके बन्धके समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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