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________________ १३९८ गोकर्मकाणे सर्व प्रथम ऐसे समस्त प्रतीकोंका स्वरूप दिखाना आवश्यक होनेसे उन्हें मूल रूपमें प्रस्तुत करना लाभप्रद होगा। साथ ही ऐसे प्रतीक उनके स्थानमें लेना आवश्यक होगा जो उनके स्थानमें अगले गहरे अध्ययनमें उपयोगी हों। ऐसे नवीन कार्यकारी प्रतीकोंको आधुनिक गणित के तारतम्यमें रखना भी अनिवार्य है, क्योंकि प्राचीन सामग्रीका प्रायोगिक रूप इसी आधारपर निखर सकेगा। इसके पूर्व जो महत्त्वपूर्ण आधार है वह वैकल्पिक ( Abstract ) इकाइयोंको लेकर बनता है। प्रारम्भ परमाणुसे करते हैं जो अविभागी पुद्गल है और जो विश्राम अवस्थामें जितनी जगह घेरता है उसे प्रदेश कहते हैं । प्रदेशोंके आधारपर, उनकी सूचि, प्रतर अथवा घनमें समाये नये क्षेत्रमान स्थापित करता है जो उपमा मानके लिए आधारभूत हैं । इस प्रकार अंगुल, जगश्रेणीके उक्त तीनों रूप किसी भी राशि की गणात्मक संख्याका प्रतिनिधित्व अथवा निर्वाचन करते हैं। निश्चयकालकी पर्यायको समय कहते हैं, जो व्यवहारकालकी सर्वाल्पतम इकाई है । इसे दूसरी तरह भी परिभाषित करते हैं। जितने कालमें कोई परमाणु दूसरे संलग्न परमाणु-प्रदेशका मन्दतम गतिसे अतिक्रमण करता है, उसे एक समय कहते हैं । इसी एक समयमें तीव्रतम गतिसे चलायमान परमाणु चौदह राजु गत प्रदेशोंका अतिक्रमण कर सकता है। इस प्रकार समय राशियोंसे पल्य तथा सागरके कालमान स्थापित करते हैं और उनका उपयोग अन्य अज्ञात राशियोंकी गणात्मक संख्याका निरूपण या प्रतिनिधित्व करने में होता है । यह कालमान भी उपमामान कहलाता है। दूसरा मान संख्यामान है जिसमें गणना द्वारा संख्येय, असंख्येय तथा अनन्तकी अनेक प्रकारकी क्रमात्मक राशियाँ उत्पन्न कर उनके द्वारा अनेक अज्ञात राशियोंके द्रव्य प्रमाणको स्थापित करते हैं। इस प्रकार किसी भी अध्ययन योग्य राशिको द्रव्य प्रमाण, क्षेत्र प्रमाण और काल प्रमाणसे तौलते हैं तथा भाव प्रमाणमें स्थापित करते हैं। भावका तात्पर्य ज्ञानके उतने अविभाग-प्रतिच्छेद-राशिसे है जो केवल ज्ञान अविभागी प्रतिच्छेद राशिकी एक उपराशि ही होती है। सभी राशियाँ केवलज्ञानकी अविभागी प्रतिच्छेद राशिमें समायी हुई होती है और उससे छोटी ही होती हैं। __ यहाँ अविभागी प्रतिच्छेद का अर्थ समझ लेना आवश्यक है। गुणोंमें गुणांशका विकल्प अविभागी प्रतिच्छेदको जन्म देता है । वैसे भी पुद्गल पदार्थको छेदते हुए अविभागी प्रतिच्छेदकी कल्पना वीरसेनाचार्यने धवल ग्रन्थ (पु. ४ ) में की है, जहाँ लोककेआयतनका सन्दा है। कर्म सिद्धान्तके अध्ययनमें भी एक और विकल्प है जो परमाणुओंके स्निग्ध-रुक्ष स्पर्शके अविभागी प्रतिच्छेदोंसे परे है। वह है अनुभागके अविभागी प्रतिच्छेदकी कल्पना जिसका सम्बन्ध स्निग्ध-रुक्ष स्पर्शके अविभागी प्रतिच्छेदोंसे जोड़ा जा सकता है, पर स्पष्ट है कि दोनों तादात्म्य सम्बन्ध नहीं रखते होंगे । यदि हो तो उसे सिद्ध किया जाये। इस प्रकार विभिन्न प्रमाणोंका वर्णन सिद्धान्त ग्रन्योंमें है और उन्हें संदृष्टियों द्वारा दर्शाया गया है । उन्हें ठीक रूपमें समझने हेतु पण्डित टोडरमलने अलगसे अर्थ संदृष्टियोंपर दो अधिकार लिखे थे। एक गोम्मटसार जीवकाण्ड कर्मकाण्ड प्रकरणपर है तथा दूसरा लब्धिसार क्षपणासार प्रकरणपर है। इन्हीं अधिकारोंके आधार पर संदृष्टियोंका स्पष्टीकरण करेंगे ताकि विभिन्न कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी गणितीय प्रणालीका रूप समझा जा सके । संदृष्टि कभी-कभी एक ही होते हए भी भिन्न-भिन्न प्रकरणोंमें भिन्न-भिन्न अर्थ प्ररूपित करती है। अतएव अंक, अर्थ एवं आकाररूप संदृष्टियोंको बड़ी सावधानीसे समझ लेनेपर कर्म सिद्धान्त का अधिकांश भाग स्मृतिमें रखना सरल हो जाता है। साथ ही अनेक प्रकरणोंका आधुनिक गणितसे तुलनात्मक अध्ययन भी सम्भव हो जाता है। यह भी प्रकट हो जाता है कि इन संदृष्टियोंमें क्या सुधार किया जाये ताकि आधुनिक ढंगसे गणित पढ़नेवाले कर्म सिद्धान्तकी गणितीय प्रणालीको भलीभाँति समझकर उसके प्रायोगिक रूप पर अनुसन्धान भी कर सकें। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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