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गणितात्मक प्रणाली
६२. संदृष्टियों का स्पष्टीकरण _ विवक्षित द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंके जो प्रमाण आदि हैं उसे अर्थ कहते हैं। अर्थकी संदृष्टि अथवा सहनानीको अर्थ संदृष्टि कहते हैं ।
शब्दोंके द्वारा अंकोंका बोध भी कराया जाता है। यथा : विधु = १, निधि - ९, अन्तरिक्ष =०, इन्द्रिय =५, करणीय-५, कर्मन् = ८, कषाय = ४, गति =४, जिन = २४, तत्त्व =७, दिक् = ८, द्रव्य -६, नय=२, पदार्थ =९, रत्न =३, ( रत्न%९ भी), रस= ६, लब्धि - ९, वर्ण =५, व्यसन = ७, व्रत-५, इत्यादि । विशेष वर्णनके किए महावीराचार्य कृत गणितसार संग्रह ( शोलापुर, 1963) देखा जा सकता है । अक्षरोंके द्वारा भी कहीं-कहीं अंकोंका निरूपण किया जाता है। इनमें एक पद्धति कटपयादि हैं ।
कटपयपुरस्थवर्णनवनव पंचाष्टकल्पितः क्रमशः ।
स्वर अन शुन्यं संख्यामात्रीपरिमाक्षरं त्याज्यं ॥। अर्थात्, निम्नरूपमें क आदि अक्षरों द्वारा संख्याओंका निरूपण होता हैक ख ग घ ङ
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अक्षरकी मात्रा ऊपर कोई अक्षर होनेका भी कोई प्रयोजनीय अर्थ नहीं होता है । प्रभृति अथवा इत्यादिको निदर्शित करनेके लिए = चिह्नका उपयोग हुआ है। उदाहरणार्थ ६५ =
का अर्थ पणट्टी अथवा ६५५३६ अथवा (२) है ! यह २१६ का मान है। इसी प्रकार वादालको
४२ = द्वारा प्ररूपित किया जाता है जिसका मान ( २ ) अथवा ( २ )३२ है । इसी प्रकार एकट्ठी
अथवा १८ = का मान ( २) अथवा (२)६४ है । जघन्यको भी ज= लिखा जाता है।
कर्मस्थिति रचनामें बीचकी संख्याओंको दर्शानेके लिए बिन्दुओं अथवा शून्योंका प्रयोग किया जाता है। यदि आदि निषेककी संख्या ५१२ हो और अन्तनिषेकको ९ द्वारा प्ररूपित किया गया हो तो बीचके निषेकोंका इसी प्रकार निदर्शन हैक-१७६ For Private & Personal Use Only
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