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________________ चतुभंगाः॥ ७९२ गो० कर्मकाण्डे कम्मपदंगळोळपर्याप्रयुतत्रयोविंशति प्रकृतिबंधस्थानं प्रत्येकमों दोवरोळेकेकभंगमेयक्कुं। त्रसापर्याप्तयत द्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियपंचेंद्रियासंज्ञि संज्ञि मनुष्यगतियुतापामयुतषट्कर्मपदंगळोळं प्रत्येकं पंचविंशतिप्रकृतिबंधस्थानमक्कुं। भंगमुमेकमेयक्कुमें बुदत्थं ॥ तत्थासत्थं एदि हु साहारणथूलसव्वसुहुमाणं । पज्जत्तेण य थिरसुहजुम्मेक्कदरं तु चदुभंगा ॥५३४॥ तत्राशस्तमेति खलु साधारणस्थूलसर्वसूक्ष्माणां। पर्याप्तेन च स्थिरशुभयुग्मैकतरं तु तत्र मा एकेंद्रियभेदंगळोळु साधारणस्थूलसर्वसूक्ष्माणां पर्याप्तेन च साधारणवनस्पतिबादरपर्याप्तवोडनयं सर्वसूक्ष्मंगळपर्याप्तदोडनेयं बंधमप्प पंचविंशतिप्रकृतिबंधस्थानपंचकं १० अशस्तमेति खलु अप्रशस्तप्रकृतिबंधमनेदुगुमंतैय्दुवडं तु मत्त विशेषमुंटवावुर्वेदोडे स्थिरशुभ युग्मैकतरं स्थिरास्थिरशुभाशुभयुरमंगळोळेकतरप्रकृतिबंधमनेटदुगुमदु कारणमागि चतुभंगाः नाल्कु भगंगळप्पुवु २५ यितु साधारणबादरवनस्पतिपर्याप्तयुत पंचविंशति प्रकृतिबंधस्थानदोळं पृथ्व्यप्तेजोवायुधारणंगळ सूक्ष्मपर्याप्तयतपंचविंशतिप्रकृतिबंधस्थानपंचकदोळं नाल्कु नाल्कु भंसंगळप्पुबुदत्थं ॥ १५ कुतः ? एकतरप्रतिपक्षबंधाभावात् । तेन प्रागुक्त कचत्वारिंशत्सदेषु नरकगतियुताष्टाविंशतिकेषु एकेंद्रि यापर्याप्तयुतकादशत्रयोविंशतिकेषु, असापर्याप्तयुवषट्पंचविंशतिकेषु चैकक एवं भंगः स्यात् ॥५३३॥ तत्र तेषु एकेंद्रियभेदेषु साधारणवनस्पतिबादरपर्याप्तेन सर्वसूक्ष्माणां पर्याप्तेन च पंचविंशतिकं खल सप्रशस्तं बंधमेति तेन स्थिरशुभयुग्मयोरेकैकप्रकृतिबंधाच्चत्वारो भंगा भवंति २५ । साधारणबादरवनस्पति पर्याप्तयुतपंचविंशतिके पृथिव्यप्तेजोवायुसाधारणानां सूक्ष्मपर्याप्तयुतपंचविंशतिकपंचके च चत्वारो भंगा २० भवंतीत्यर्थः ॥५३४॥ जिसका बन्ध होता है उसी एक-एक प्रकृतिका ही बन्ध होता है । अतः पूर्वमें कहे इकतालीस पदोंमें-से नरकगति सहित अट्ठाईसके स्थानमें और एकेन्द्रिय अपर्याप्त सहित ग्यारह पदोंके तेईस बन्धक स्थानोंमें तथा त्रस सहित छह पदोंके अपर्याप्त सहित पच्चीसके स्थानोंमें एक एक ही भंग होता है ॥५३३॥ २५ उन एकेन्द्रियके म्यारह भेदोंमें-से साधारण वनस्पति बादरपर्याप्त और सब सूक्ष्मोंके पर्याप्त सहित पच्चीसके बन्धस्थानमें अप्रशस्तका ही बन्ध होता है। किन्तु स्थिर और शुभके युगलमें से एक-एक प्रकृतिका ही बन्ध होता है। अर्थात् स्थिर-अस्थिरमें-से या तो स्थिरका हो बन्ध होता है या अस्थिरका ही बन्ध होता है। इसी तरह शुभ-अशुभमें-से या तो शुभका ही बन्ध होता है या अशुभका ही बन्ध होता है। इससे साधारण, बादर, वनस्पति पर्याप्त ३० सहित पच्चीसके स्थानमें और पृथ्वी, अप, तेज, वायु, साधारणके सूक्ष्म पर्याप्त सहित पच्चीसके पांच स्थानोंमें उक्त दो युगलोंके चार-चार भंग होते हैं ।।५३४॥ १. २३ २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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