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________________ ८६२ गो० कर्मकाण्डे वयाविजनितगुणस्थानंगळोळ चतुर्गतिजोवंगळोळ संभविसुव शुभाशुभलेश्यगळं साधिसल्बक्कुमप्पुरिदं । संकमणं संठाण परढाणं होदि किण्हसुक्काणं। बढोसु हि संठाणं उभयं हाणिम्मि सेसउभयेवि ।। यिल्लि लेश्यगळ्गे स्वस्थानपरस्थानसंक्रमणमें दुं संक्रमणमरडुप्रकारमप्पुदल्लि कृष्णलेश्यगं शुक्ललेश्यगं वृद्धिगळोळु स्वस्थानसंक्रमणमयक्कुं। स्वस्थानसंक्रमणमुं परस्थानसंक्रमणमुंमेंबुभयसंक्रमणमा कृष्णलेश्यगं शुक्ललेश्यगं हानियोलक्कुं। शेषनीलकपोततेजःपगंगळ स्वजघन्यमादियागि स्वस्वोत्कृष्टपथ्यंतमप्प वृद्धियोळं स्वोत्कृष्टं मोदल्गोंडु स्वजघन्यपथ्यंतमप्प हानियोळ स्वस्थानसंक्रमणमुं परस्थानसंक्रमणमक्कुमदेते दोडे कृष्णशुक्लंगळगे स्वजघन्यं मोदल्गोंडु १० स्वोत्कृष्टपय्य॑तं स्वस्थानसंक्रमणमयक्कुमेके दोर्ड शुक्लपनतेजःकपोतनोलंगळोळ कृष्णनील कपोततेजः पनंगळोळ संकरमिल्लेके दोड लक्षणतः सिद्धंगळप्पुरिदं। मत्तं हानियोळमा कृष्णशुक्लंगळ्गे स्वोत्कृष्टं मोदल्गोंडु स्वजघन्यपयंतं स्वस्थानसंक्रमणमुं मुंदण नीलकपोततेजः- . पद्मशुक्ललेश्योत्कृष्टपथ्यंतमुं पातेजःकपोतनीलकृष्णोत्कृष्टपथ्यंतसुं परस्थानसंक्रमणमुमाकुं शेषनीलकपोतंगळ पनतेजंगळ स्वस्वोत्कृष्टं मोदल्गोंडु स्वस्वजघन्यपय्यंतहानियोलु स्वस्थान१५ संक्रमणमुं स्वस्वजघन्यंगळिदं मुंदण लेश्यगळोळ शुक्ललेश्योत्कृष्टपथ्यंतमुं कृष्णलेश्योत्कृष्ट पथ्यंतमुं परस्थानसंक्रमणमुमक्कुं । मत्तमा नाल्कर वृद्धियोळ, स्वस्वजघन्यं मोदल्गोंडु स्वस्वोत्कृष्टपय्यंतं स्वस्थानसंक्रमणमुं स्वस्वोत्कृष्टंगळ मुंदण कृष्णोत्कृष्ट पय्यंत, शुक्ललेश्योत्कृष्टपथ्यंतमुं परस्थानसंक्रमणमुमक्कुं। सर्वत्र परस्थानसंक्रमणंगळोळ परलेश्यापरिणमनमप्पंतु गमनकारणानि तेषु सुभगत्रयस्य नवांशाः नरकगतौ तिर्यग्गतो चोत्पादकाः । अग्रतनाः शुभाशुभलेश्यांशास्तु तिर्यग्मनुष्यदेवगतिगमनकारणानि । लेश्यासंक्रमणं तु कृष्णशुक्लयोवृद्धावग्रेऽन्यलेश्याभावात्स्वस्थाने एव हानी स्वोत्कृष्टात्स्वजघन्यपयंतं स्वस्थाने कृष्णायाः नीलकपोततेजःपद्मशुक्लोत्कृष्टपर्यतं शुक्लायाः पमतेजःकपोतनीलकृष्णोत्कृष्टपयंतं च परस्थाने स्यात् । शेषाणां हानो स्वस्वोत्कृष्टादास्वस्वजघन्यं स्वस्थाने परस्थाने तु नील २५ लेश्याओंके नौ अंश तो नरकगति और तियंचगतिमें उत्पन्न कराते हैं। आगेके शुभ-अशुभ लेश्याओंके अंश तिर्यंच, मनुष्य और देवगतिमें गमनके कारण हैं। आगे लेश्याओंका संक्रमण कहते हैं एक स्थानसे दूसरे स्थानको प्राप्त होनेका नाम संक्रमण है। वृद्धि में कृष्ण और शुक्ललेश्याका संक्रमण स्वस्थानमें ही है क्योंकि संक्लेश या विशुद्धिकी वृद्धि होनेपर कृष्ण या शुक्लको छोड़ अन्य लेश्याको प्राप्त नहीं होता। हानिमें अपने-अपने उत्कृष्टसे अपने-अपने जघन्य अंश पर्यन्त स्वस्थानमें और कृष्णका नील, कपोत, तेज, पद्म, शुक्लके उत्कृष्ट पर्यन्त ३० तथा शुक्लका पन, तेज, कपोत, नील, कृष्णके उत्कृष्ट पर्यन्त परस्थानमें संक्रमण होता है। शेष लेश्याओंका संक्लेश या विशुद्धताकी हानि होनेपर अपने-अपने उत्कृष्टसे अपने-अपने जघन्य पर्यन्त तो स्वस्थान संक्रमण है । और नील तथा कपोतका अपने-अपने जघन्यसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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