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________________ ५ १० ६९४ २० गो० कर्मकाण्डे ई मोहनीय दशबंधस्थानं गळगे स्वामिगळं गुणस्थानदोळु पेदपरु : बावीस मेक्कवीसं सत्तर सत्तार तेर तिसु णवयं । धूले पणचदुतियदुगमेक्कं मोहस्स ठाणाणि ॥४६४ ॥ द्वाविंशतिशतिः सप्तदश सप्तदश त्रयोदशैव त्रिषु नवकं । स्थूले पंचचतुस्त्रिकद्विकैकं मोहस्य स्थानानि ॥ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि अपूर्वकरणपय्र्यंतं मोहनीयदंघस्थानंगळ क्रर्मादिदं द्वाविंशति, एकविंशति, सप्तदश, सप्तदश, त्रयोदश नव नव नवंगळु । मनिवृत्तिकरणनोळ पंचचतुः त्रिद्वि एक प्रकृतिस्थानं गळमवु । संदृष्टि : -- मि | सा | मि | अ | दे | प्र २२ | २१ | १७ | १० | १३ ९ अनंतरमुक्तस्थानप्रकृतिगळोळ ध्र ुवबंधिगळ संख्येयं पेव्वपरा : अ अ अ ९ | १ | ५|४१३१२११ उगुवीसं अट्ठारस चोइस चोइस य दस यतिसु छक्कं । थूले चदुतिदुगेक्कं मोहस् य होंति धुवबंधी || ४६५ ।। एकनवत्यष्टादश चतुर्द्दश चतुर्द्दश दश त्रिषु षटुकं स्थूले चतुस्त्रिद्वयेकं मोहस्य भवंति ध्रुवबंधिन्यः ॥ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि अनिवृत्तिकरण भागभागेगळ पर्यंतमुक्त द्वाविंशत्यादि १५ प्रकृतिस्थानंगळोळ मोहनीयध्र ुवबंधि प्रकृतिगळ संख्ये यथाक्रर्मादिदं एकान्नविंशति अष्टादश चतुर्द्दश चतुर्दशदश षट् षट् षट् चतुः त्रि द्वि एकंगळप्पुवु । संदृष्टि : सू । उ | क्षी | स | अ O ० ० ० o मि सा मि | अ दे प्र अ अ अ १९ | १८ | १४ | १४ | १० | ६ | ६ ६ ४ ३ २ । १ मोहनबंधस्थानानि गुणस्थानेषु मिथ्यादृष्टो द्वाविंशतिकं । सासादने एकविंशतिकं । मिश्रासंयतयोः सप्तदशकं । देशसंयते त्रयोदशकं । प्रमत्तादित्रये प्रत्येकं नवकं । अनिवृत्तिकरणे पंचकं चतुष्कं द्विकमेककं च ॥४६४।। Jain Education International मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्तिकरणभागांतमुक्तस्थानेषु क्रमेण मोहनीयस्य ध्र ुवबंधान्ये कान्नविंशतिरष्टादश चतुर्दश चतुर्दश दश षट् षट् षट् चत्वारि त्रीणि द्वे एकं भवंति ॥ ४६५॥ इनमें से मिध्यादृष्टि गुणस्थान में तो बाईस प्रकृतिरूप स्थान है । सासादनमें इक्कीस प्रकृतिरूप स्थान है । मिश्र और असंयत गुणस्थानमें सतरह प्रकृतिरूप स्थान है । देशसंयत में तेरह प्रकृतिरूप स्थान है। प्रमत्त आदि तीनमें से प्रत्येक में नौ प्रकृतिरूप स्थान है । अनिवृत्ति२५ करण में पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिरूप पाँच स्थान हैं || ४६४ || मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरणके भाग पर्यन्त जो स्थान कहे हैं उन स्थानों में क्रम से उन्नीस, अठारह, चौदह, चौदह, दस, छह, छह, छह, चार, तीन, दो एक तो मोहनीयकी ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ हैं । जिनका बन्ध अवश्य होता है उन्हें ध्रुवबन्धी कहते हैं ||४६५ || For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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