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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२४३ जीवो नास्त्यवक्तव्य इति को जानीते। जीवो अस्ति नास्ति अवक्तव्य इति को जानीते । एंदिकजीवंगे, भंगमागल नवपदात्थंगळगमरुवतपूरु भंगंगळप्पुवे बुदत्थं । मतं : को जाण सत्तचऊ भावं सुद्धं खु दोणिपंतिभवा । चत्तारि होंति एवं अण्णाणीणं तु सत्तट्ठी ॥ ८८७॥ ५ को जानीते सत्वचतुर्भावं शुद्धं खलु द्विपंक्तिभवाश्चत्वारो भवत्येवमज्ञानिनां तु सप्तषष्टिः ॥ शुद्धभावमं पदार्थमनों पंक्तियागिरिसि मेले अस्ति । नास्ति । अस्ति नास्ति । अवक्तव्यंगळं तिष्यं प्रपदिदं स्थापिसि अस्थि । नास्थि । अस्थि नास्थि अवक्तव्य । ४ शुद्ध पदार्थ १ --- द्विपंक्ति भवंगळ शुद्धपदार्थोस्तीति को जानीते । पदार्थो नास्तीति को जानीते । पदार्थोस्ति नास्तीति को जानीते । पदार्थोवक्तव्य इति को जानीते एंवितु नाल्कु भंगंगळप्पुवु । उभयमुमदवत्तेळमज्ञानंगळ वादंगळप्पुवु । ६७ ॥ अनंतरं द्वात्रिंशद्वेनयिकवादंगळ मूलभंगंगळ पेदपरु :मणवयण कायदाणगविणवो सुरणिवइणाणिजदिबुड्ढे । बाले मादुपिदुम य कायव्वो चेदि अट्ठचऊ ||८८८॥ मनोवचनकायबानग विनयः सुरनृपतिज्ञानियतिवृद्धेषु । बाले मातरि पितरि च कर्तव्य - त्यष्टचत्वारः ॥ जानाति ? इत्याद्यालापे कृते त्रिषष्टिभवंति ॥१८८६ ॥ पुनः शुद्धपदार्था इति लिखित्वा तदुपरि अस्ति, नास्ति, अस्तिनास्ति, अवक्तव्यः इति चतुष्कं लिखित्वा एतत्पत्तिद्वयसम्भवाः खलु भंगाः शुद्धपदार्थोऽस्तीति को जानीते ? इत्यादयश्चत्वारो भवन्ति । एवं मिलित्वा बज्ञानवादा: सप्तषष्टिः ||८८७|| वैनयिकवादानां मूलभंगानाह— ऐसा कौन जानता है ? जीव अस्ति नास्ति अवक्तव्य है ऐसा कौन जानता है । इसी प्रकार जीवकी जगह अजीवादि रखनेसे तिरसठ भेद होते हैं ||८८६ ॥ पहले शुद्ध पदार्थ लिखो । उसके ऊपर अस्ति, नास्ति, अस्ति नास्ति, अवक्तव्य चार लिखो। इन दोनों पंक्तियोंके मेलसे चार भंग होते हैं । यथा शुद्ध पदार्थ है ऐसा कौन जानता है आदि । ये मिलकर अज्ञानवादके सड़सठ भंग होते हैं । विशेषार्थ - अज्ञानवादी अज्ञानको ही पुरस्कृत करते हैं। ज्ञानके विषयभूत नौ पदार्थ हैं और उपायभूत सात तत्व हैं । उनके निषेधरूप तिरसठ भंग होते हैं । तथा ज्ञानका विषय शुद्ध पदार्थ है और मौलिक भंग चार होनेसे उनके निषेधरूप चार भंग होते हैं। शेष तीन भंग अवक्तव्यके साथ आध तीन भंगोंके मेलसे बनते हैं । इसलिए उन्हें छोड़ दिया है। शुद्ध द्रव्यमें उनका उपयोग सम्भव नहीं होता। इस तरह अड़सठ भंग होते हैं ||८८७ || Jain Education International For Private & Personal Use Only १० १५ २० २५ www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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