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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका १३०७ संख्यात पंचमूलंगळं गुणकारमनसंख्यातर्म व पल्यतृतीयमूलक्के गुणकारमनाचाय्यं माडि रचनेयोबरदं । मू ३० । ई प्रकारविंदं शेषषट् पंक्तिगळ्गेयु मरियल्पडुगुमल्लि द्वितीयपंक्तिपनिप्पत्तु कोटी कोटिसागरोपम स्थितिप्रतिबद्धमं माडि तृतीयपंक्तिर्यत्रिशत्कोटी कोटिसागरोपमस्थितिप्रतिबद्धमं माडि चतुर्थपंक्तियं चत्वारित्सागरोपम कोटोकोटिस्थिति प्रतिबद्धमं माडि पंचमपंक्तियं पंचाशत्सागरोपम कोटोकोटिस्थितिप्रतिबद्धमं माडि षष्ठपंक्तियं षष्ठिसागरोपमकोटोकोटि ५ स्थितिप्रतिबद्धमं माडि सप्तमपंक्तियं सप्ततिसागरोपमकोटी कोटिस्थितिप्रतिबद्धमं माडि त्रैराशिकसिद्धलब्धैकैक पंक्तिगळं तत्तस्थितिनानागुणहानिशलाकापंक्ति गळु मन्योन्याभ्यस्तरा शिगळप्प तत्तन्मूलं गळमवेदु मुंबण सूत्रगळिदं व्याप्तिरूपबिंबं पेव्वपरु : इगिति गदं ध ध अप्पिट्ठेण य हदे हवे णियमा । अपस य पंति णाणागुणहाणिपडिबद्धा ||९३५|| एक पंक्तिगतं पृथक्पृथगात्मेष्टेन च हते भवेन्नियमात् । आत्मेष्टस्य च पंक्तिर्नानागुणहानि प्रतिबद्धा ॥ आ सप्तपंक्तिगळोळेक पंक्तिगत प्रथमपंक्तिगतराशिगळ दशकोटीकोटिसागरोपमस्थितिविरलितराश्यधिकरूपोत्पन्नत्वाद् गुणितं तदन्योन्याभ्यस्तराशिः पंचमूलमात्रेण मू ५ a असंख्यातीकृतेन स्यात् भू ३ ० ॥९३४॥ अथ विशतिकोटीकोटिसागरोपमादिस्थितिकानां नानागुणहा निशलाकान्योन्याभ्यस्त १५ राशी माह ܐ तासु शेषषट् पंक्ति के पंक्तिगतं सर्वं पृथक् फराशि कृत्वा तत्र प्रथमपंक्तिगतं आत्मेष्टेन विंशतिसो गुणकार में से एक घटाकर उसे जुदा रखो शेष सातका गुणाकार रहा और पहले सातका भागद्दार था । सो दोनोंको समान जानकर अपवर्तन करनेपर दोनों ही नहीं रहे। ऐसा करनेपर पल्यके अर्द्ध च्छेदों का आठवाँ भाग हुआ । इतने दोके अंक रखकर परस्पर में गुणा २० करनेपर पल्यका तीसरा वर्गमूल हुआ। क्योंकि भागहारके जितने अर्द्धच्छेद होते हैं उतने वर्गस्थान भाज्यराशिसे नीचे जानेपर उत्पन्न राशिका प्रमाण होता है । सो यहां भागहार आठ है. उसके अर्द्ध च्छेद तीन हुए । सो पल्यसे नीचे तीसरा वर्गस्थान पल्यका तीसरा वर्गमूल है। तथा जो गुणकार में से एक जुदा रखा था वह पल्यका छप्पनवाँ भाग गुणकार था इससे पत्यका छप्पनवाँ भाग प्रमाण रहा। उसमें ऋणरूप पल्यको वर्गशलाकाके अर्द्ध च्छेदोंका २५ सातवां भाग घटानेपर जो शेष रहे उतने दोके अंक रखकर परस्पर में गुणा करने पर असंख्यात गुणा पल्यका पाँचवाँ वर्गमूलमात्र असंख्यातका प्रमाण हुआ । 'विरलिदासीदो पुण' इत्यादि सूत्र के अनुसार अधिक राशिको परस्पर में गुणा करने से राशि होती है वह गुणकार रूप होती है। अतः उस असंख्यात से पल्य के तीसरे वर्गभूलको गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना दस कोड़ाकोड़ीकी अन्योन्याभ्यस्त राशि जानना ||९३४ | | ३० आगे बीस कोड़ाकोड़ी आदि स्थितिकी नानागुणहानि और अन्योन्याभ्यस्त राशि कहते हैं जैसे दस कोड़ाकोड़ी सागरकी प्रथम पंक्ति में सब तीन-तीन स्थानोंकी जोड़रूप राशि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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