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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८४७ केलंबकल्पजस्त्रीयरोळं केलंबस्सौंधर्मकल्पद्वयदोळं केलंबनित्कुमारादिवशकल्पदोळं केलंबरा. नतादिकल्पंगळोळं नवग्रेवेयकंगळोळं नित्यपर्याप्तसासादनदेवासंयमिगळप्परल्लि । भवनत्रयकल्पजस्त्रोसौधर्मद्वयनिवृत्यपर्याप्तसासादनदेवासंयमिगळु एकेंद्रियपर्याप्तयुतपंचविंशतिप्रकृति. स्थानमुमं उद्योतातपैकेंद्रियपर्याप्तयुतषड्विंशतिप्रकृतिस्थानमुमं कटुवुदिल्लेके दोडे सासादनकालं परिसमाप्नियागुत्तं विरलु नियमदिदं मिथ्यावृष्टिगळागि तत्प्रथमसमयं मोवल्गोंडु यावच्छरीरमपूर्ण तावत्कालं नित्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टिदेवासंयमियागि कटुगुमप्पुदरिंदमा सासादनं पंचेंद्रियतिय्यंग्गतिपर्याप्तयुतनविंशतिस्थानमुमं पर्याप्तमनुष्यगतियुतनविंशतिप्रकृतिस्थानमुमनुद्योतपर्याप्ततिर्यग्गतियुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुमं कटुगुं । सानत्कुमारादिदशकल्पंगळ सासादनरुगळमंत द्विस्थानंगळं कटुवरु । आनताविकल्पजरं नवप्रैवेयकंगळहमिवसासावनरुगळं मनुष्यगतियुत नविंशतिप्रकृतिस्थानमनोंदने कटुवरु । सासादनत्वं पोगुत्तिरलु मिथ्यादृष्टिगळागि १० यावच्छरीरमपूर्ण तावत्कालपय्यंत मिथ्यादृष्टिनिवृत्यपर्याप्तमिथ्यावृष्टिगळ्गे पेन्दंते नामकर्मबंधस्थानंगळं कटुवरु। भवनत्रयं मोदल्गोंडुपरिमप्रैवेयकावसानमावकल्पजरुं कल्पातीतजरगळप्पमिश्ररुचिगळप्पऽसंयमिगळु मनुष्यगतिपर्याप्तयुतनवविंशतिप्रकृतिस्थानमनोदने कटुवरु । देवासंयतासंयमिगळु द्विविधमप्परतेंदोडे निर्वृत्यपर्याप्तासंयतदेवासंयमिगळेदुं पर्याप्तासंयतदेवासंयमिगळे दितल्लि भवनत्रयकल्पजस्त्रोयरोळं तोय॑सत्कर्मरुगळ पुट्टरप्पुरिदं निर्वृत्यपा- १५ तकालदोळं पर्याप्तकालदोळं तीर्थमनुष्यगतियुत त्रिंशत्प्रकृतिस्थानं बंधमिल्ल । केवलं मनुष्य गतियुतनवविंशति प्रकृतिस्थानमनोंदने पर्याप्तकर कटुवरु । सौधर्मकल्पद्वयादि सर्वार्थसिद्धिपथ्यंतमाद कल्पजरुं कल्पातीत जरुगळं निर्वृत्यपातकालदोळं पर्याप्तकाळदोलं मनुष्यगतियुत नवविंशतिप्रकृतिस्थानमुमं तीर्थसत्कर्मरल्लववर्गळल्लरुगळु मोवने कटुवरु। तीर्थसत्कर्मरद्वयजास्तदा पंचेंद्रियतिर्यग्मनुष्यगतिपर्याप्तयुतनवविंशतिकतिर्यग्गत्युद्योतपर्याप्तयुतत्रिंशत्के बध्नंति । सासादन- २० कालमतीत्य मिथ्यादृष्टय एव भूत्वा तवयं यावच्छरीरमपूर्ण तावदेकेंद्रियपर्याप्तयुतपंचविंशतिकोद्योतातपैकेंद्रियपर्याप्तयुतषड्विंशतिके च सानत्कुमारादिदेशकल्पजास्तदा तद्वयमेव आनतादिकल्पनवग्रैवेयकजास्तदा मनुष्यगतिनवविंशतिकमेव । सासादनत्वेऽतीते तन्निच्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टिवद्वघ्नंति । भवनत्रयाद्युपरिमप्रैवेय या सौधर्म युगलमें उत्पन्न हुए हैं तो पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियंचगति या मनुष्यगति सहित उनतीसका या तिथंचगति उद्योत सहित तीसका बन्ध करते हैं। सासादनका काल पूरा २५ होनेपर मिथ्यादृष्टि होकर उन दोनों स्थानोंको और जबतक शरीर पर्याप्ति पूर्ण न हो तबतक एकेन्द्रिय पर्याप्त सहित पचीसको अथवा उद्योत आतप एकेन्द्रिय पर्याप्त सहित छब्बीसको बाँधते हैं। सानत्कुमार आदि दस कल्पवाले उन उनतीस और तीस दो ही स्थानोंको बाँधते हैं। आनतादि स्वर्ग और नौ अवेयकोंके देव मनुष्यगति सहित उनतीसका ही बन्ध करते हैं। ३० सासादनका काल बीतनेपर नित्यपर्याप्त मिथ्यादृष्टिके समान स्थान बांधते हैं । भवनत्रिकसे लेकर उपरिम प्रैवेयक पर्यन्त मिश्रगुणस्थानवर्ती और पर्याप्त भवनत्रिक तथा कल्पवासी क-१०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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