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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका को करइ कंटयाणं तिक्खत्तं मियविहंगमादीणं । विवित्तं तु सहाओ इदि सव्वंपि य सहाओ ति ॥ ८८३ ॥ कः करोति कंटकानां तीक्ष्णत्वं मृगविहंगमादीनां विविधत्वं तु स्वभाव इति सर्व्वमपि च स्वभाव इति ॥ कंटकंगळ्गे तीक्ष्णत्वं मृगविहंगंगळ विविधत्वमुमनावं माकुं । मति दुःस्वभावमे विर्त ५ सर्व्वमुं स्वभावमे दें बुदु स्वभाववादमे वुदक्कुं । इंतु क्रियावादंगळु नूरणभत्तुं पेळल्पदुवंनंतरं चतुरशीतिप्रमित क्रियावादंगळ मूलभंग मं पेदपरु : .१२४१ णत्थि सदो परदोवि य सत्तपयत्था य पुण्ण पाऊणा । कालादियादिभंगा सत्तरि चदुपंति संजादा ||८८४ ॥ नास्ति स्वतः परतोपि च सप्तपदार्थाचा पुण्यपापोनाः । कालादिका अपि भंगाः सप्ततिश्चतुः पंक्तिसंजाताः ॥ नास्तित्वद मेले स्वतः परतः एंदिवं स्थापिसि मेले मते पुण्यपापोनंगळं सप्तपदात्थंगळं स्थापिसि मेले काल ईश्वर आत्म नियति स्वभावपंचकमं स्थापिसि इंतु चतुः पंक्तिगळोळक्षसंचारसंजातभंगंगः ठप्पत्तष्वु । इदक्के संदृष्टि -: का । ई । आ । नि । स्व५ । जो । अ । आ । सं । नि । बं । मो ७ स्वतः परतः २ नास्ति १ स्वतो जीवः काले नास्ति क्रियते इत्यादि १ । २ । ७।५ । लब्धभंगंगळु सप्ततिप्रमितंगळप्पुवु । ॥७०॥ मत्तं : को नाम कंटकादीनां तीक्ष्णत्वं मृगविहंगमादीनां च विविधत्वं करोतीति प्रश्ने स्वभाव एवेति सर्व स्वभाववादार्थः ॥ ८८३ ॥ इति क्रियावादा उताः । अथाक्रियावादानां मूलभंगानाह नास्ति । तस्योपरि स्वतः परतश्च । तदुपरि पुण्यपापोनपदार्थाः सप्त । तदुपरि कालादिकाः पंचेति चतसृषु पंक्तिषु प्राग्वत्सं जाता भंगाः स्वतो जीवः कालेन नास्ति क्रियते इत्यादयः सप्ततिः ॥ ८८४ ॥ काँटे आदिको तीक्ष्ण किसने बनाया ? मृग, पशु-पक्षी नाना प्रकारके किसने बनाये । ऐसा पूछने पर उत्तर देता है - स्वभावसे ही ऐसा है । उसमें अन्य कोई कारण नहीं है, ऐसा मानना स्वभाववाद है ||८८३ || इस प्रकार क्रियावादी मत कहे । अब अक्रियावाद के मूलभंग कहते हैं । पहले नास्ति पद लिखो । उसके ऊपर स्वतः और परतः लिखो । उसके ऊपर पुण्य और पापको छोड़ शेष सात पदार्थ लिखो । उसके ऊपर काल आदि पांच लिखो । इस प्रकार चार पंक्ति करके पूर्ववत् अक्ष संचार द्वारा भंग होते हैं। जैसे जीव स्वतः कालसे नहीं किया जाता । परतः जीव कालसे नहीं किया जाता। इसी प्रकार जीवके स्थान में अजीवादि कहने से चौदह भंग कालसे होते हैं। इसी तरह ईश्वर आदि पाँचोंकी अपेक्षा चौदह भेद होनेसे सत्तर भंग होते हैं ||८८४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only १० १५ २० २५ ३० www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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