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________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्वप्रदीपिका १०९१ यल्पडुगुमे ते दोडा विकलत्रय जीवंगळ सुरद्विक, नारकचतुष्टयमुमनुद्वेल्लनमं माडि पुनबंधमं माळ्प योग्यते यिल्लिप्पुरिदं पेळल्पटुदु । "पुण्णिदरं विगिविगळे" एंदितल्लि "सुरणिरयाउअपुण्णे वेगुम्वियछक्कमवि पत्थि" एंवितु तज्जोवंगळोळु तदबंधनिषेधमरियल्पडुगुं। भाषापर्याप्तियुत सासादनतिथ्यचरो उ ३०। बं २९ । ति । म। ३० । ति उ । स ९०॥ मिश्रंगे उ ३० । ब २८ । दे। स ९२ । ९० ॥ असंयतंगे उ ३० । बं २८ । दे। स ९२ । ९० ॥ देशसंयतंग उ ३०। ५ बं २८ । दे । स ९२। ९०॥ मनुष्यगतिजरोळु तीर्थयुतमूलशरीरप्रविष्टसमुद्घातकेवलियो। ळ च्छ्वासनिश्वासपर्याप्तियोळ च्छ्वासनिश्वासोदययुतमागि उ ३० । बं । । स ८० । ७८ । तोयरहितमूलशरीरप्रविष्टसमुद्घातकेवलिगे भाषापाप्तियोळ सुस्वरदुस्वरान्यतरोदययुतमागि उ ३० । बं । । स ७९ । ७७ ।। मनुष्यमिथ्यादृष्टिळगे भाषापर्याप्तियोळ सुस्वरदुस्वरान्यतरोवययुतमागि उ ३० । बं २३ । २५॥ २६ ॥ २८॥ २९ ॥ ३०॥ स ९२ । ९१ । ९०॥ इल्लि तीर्थयुत- १० सस्वस्थानं नरकगमनाभिमुखजीवनोळ संभविसुगुमें दरियल्पडगुं। सासादनंगे उ ३० । बं २८ । दे । २९ । तिम । ३० । ति उ । स ९० ॥ मिश्रंगे उ ३० बं २८ । दे । स ९२। ९० ॥ असंयतंग उ ३०, स ९२, ९०,८८,८४ । अत्राष्टाशीतिकचतुरशीतिकसत्वं विकलत्रयापेक्षं। एषामेव सुरद्विकनारकचतुकोद्वेल्लने कृते पुनबंधस्याभावात् । सासादने उ ३०, २९ ति म, ३० ति, उ, स ९० । मिश्रे उ ३०, बं २८३, स ९२, ९०, असंयते उ ३०, बं २८ दे, स ९२, ९० । देशसंयते उ ३०, बं २८ दे, स ९२, ९०। १५ मनुष्येषु सतीर्थमूलशरीरप्रविष्टयोरुच्छ्वासयुतं । उ ३०, बं०, स ८०, ७८ । वितीर्थमूलशरीरप्रविष्टस्य भाषापर्याप्तो सुस्वरदुःस्वरान्यतरयुतं । उ ३०, बं० । स ७९, ७७ । मिथ्यादृष्टी भाषापर्याप्तो सुस्वरदुःस्वरान्यतरयुतं उ ३०, बं २३, २५, २६, २८, २९ (३०) स ९२, ९१, ९० । अत्र सतीर्थसत्त्वं नरकगमनाभिमुखापेक्षं। सासादने उ ३० । बं २९ ति म । ३० दिउ । स ९.। मिश्रे उ ३० । बं २८ दे, वहां मिथ्यादृष्टि में बन्ध तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीसका है और २० सत्त्व बानबे, नब्बे, अट्ठासी, चौरासीका है। यहाँ अठासी-चौरासीका सत्त्व विकलत्रयकी अपेक्षा कहा है। क्योंकि इन्हींके सुरद्विक और नारक चतुष्ककी उद्वेलना होनेपर पुनः बन्धका अभाव है । सासादनमें बन्ध वियंच या मनुष्य सहित उनतीसका अथवा वियंच उद्योत सहित तीसका है। सत्त्व नब्बेका है। मिश्र असंयत देशसंयतमें बन्ध देवगति सहित अट्ठाईसका और सत्व बानबे-नब्बेका है। २५ मनुष्योंमें तीर्थंकरके मूल शरीरमें प्रवेश करते हुए उच्छवास सहित तीसका उदय होता है। वहां बन्ध नहीं है । सत्त्व अस्सी, अठहत्तरका है। तीर्थकर रहितके मूल शरीरमें प्रविष्ट होनेपर भाषा पर्याप्तिमें सुस्वर या दुःस्वर सहित तीसका उदय होता है। वहाँ बन्ध नहीं है। सत्व उन्यासी सतहत्तरका है। सामान्य मनुष्यके भाषा पर्याप्तिमें सुस्वर या दुःस्वर सहित तीसका उदय है। वहाँ बन्ध मिथ्यादृष्टि में तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अठाईस, ३० उनतीस, तीसका और सत्त्व बानबे, इक्यानबे, नब्बेका है। यहाँ इक्यानबेका सत्त्व नरक . जानेके अभिमुख तीर्थकरकी सत्तावालेको अपेक्षा कहा है। सासादनमें बन्ध तियंच या मनुष्य सहित उनतीसका और तिथंच उद्योत सहित तीसका है। सत्त्व नब्बेका है। मिश्रमें बन्ध देवसहित अठाईसका और सत्त्व बानबे-नब्बेका है। असंयतसे अपूर्वकरणके छठे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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