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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका ७९९ स्थितिक्षयवदिदं मृतरादोडावडयोळावगतियोळु जननमक्कु दोर्ड मुंपेन्द पंचदशकर्मभूमिगळं गर्भजपर्याप्तपंचेंद्रिय संजितिय्यंग्जीवंगळोळं कर्मभुप्रतिबद्धतिय॑क्कर्मभूमियोळं लवणोदकालोदसमुद्रंगळोठं यथायोग्यमागि स्थलचरखचरजलचरगर्भजपर्याप्तपंचेंद्रियसंज्ञितिर्यग्जीवंगळागिये नियमदिदं जनियिसुवरु। एक दोडा सप्तमपृथ्विय नारकरुगळनिबरु तिर्यगायुष्यमल्लदितरायुत्रितयमं नियदिदं कट्टरप्पुरिदं ॥ तत्थतणविरदसम्मो मिस्सा मणुवदुगमुच्चयं णियमा। बंधदि गुणपडिवण्णा मरंति मिच्छेव तत्थ भवा ।।५३९।। तत्रतनाविरतसम्यग्दृष्टिम्मिश्री मनुष्यद्विकमुच्चकं नियमाद् बध्नाति गुणप्रतिपन्नाः नियंते मिथ्यावृष्टावेव तत्र भत्राः॥ तत्रतनाविरतसम्यग्दृष्टिम्मिश्रः तत्सप्तमभूसंजातासंयतसम्यग्दृष्टियं मिथ्यादृष्टियं स्वस्वगुण- १० स्थानंगळोळे मनुष्यद्वितयमुमुच्चैग्र्गोत्रमुमं नियमदिदं कटुवरु । तत्र भवाः तत्सप्तमभूमिजरप्पनारकरुगळ गुणप्रतिपन्नाः सासादनमिश्रासंयतगळागिर्दवरुगळं स्वस्वायुःस्थितिक्षयवदि मृत. रप्पोडे मिथ्यादृष्टावेव नियमदिदं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमं पोद्दिद बळिक्क नियंते मृतरप्परु । अंतु मृतरागि बंदु मुंपेन्द नियमस्थानदो तिय्यंचरागि जनिसुवरे बुदत्थं । नारकनुमागि तिर्यग्घोरमहादुःखयोनियोळपुट्टदे नीं। सारु श्रीजिनपदम बेरिदं कोळु दुरघवृक्षाटवियं ॥ अनंतरं तिर्यग्गतियोलु मृतरागिबंद जीवंगळावावडयोळावाव गतिगळोळु पुटुगुम दोर्ड पेन्दपरु : २० दित्रयोक्तजीवेष्वेव तीर्थकरोनेषु, अरिष्टाजानां पुनश्चरमांगोनेषु, मघवोजानां पुनः सकलसंयम्यूनेषु, माघवोजानां देशसंयतासंयतमिश्रसासादनजिततादमिथ्यादृष्टितिर्यवेव अन्यायुषस्तेषामबंधात् ॥५३८॥ तत्रतन:-सप्तमनरकोत्पन्न: असंयतसम्यग्दृष्टि: सम्यग्मिथ्यादृष्टिश्च स्वस्वगुणस्थाने मनुष्यद्विकमुच्चैर्गोत्रं च नियमेन बध्नाति तत्र भवाः सासादनमिश्रासंयतगुणप्रतिपन्नास्तु यदा म्रियते तदा मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने गत्वैव ॥५३९॥ नारकी मरकर उत्पन्न नहीं होते। अंजना नरकके नारकी तीर्थकर बिना, अरिष्टावाले चरमशरीरी बिना, और मघवीवाले सकल संयम बिना पूर्वोक्त तियेच या मष्नयों में उत्पन्न २५ होते हैं । माघवीवाले नारकी देशसंयत, असंयत, मिश्र और सासादन बिना पूर्वोक्त मिथ्यादृष्टि तियं चोंमें ही उत्पन्न होते हैं क्योंकि सातवें नरकमें तिथंच आयुके सिवाय अन्य आयुका बन्ध नहीं होता ।।५३८।। सातवें नरकमें उत्पन्न हुआ जीव असंयत सम्यग्दृष्टी और सम्यग्मिध्यादृष्टि होकर अपने-अपने गुणस्थानमें नियमसे मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका बन्ध करता ३० है। किन्तु वहाँ उत्पन्न होने के पश्चात् सासादन, मिश्र और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानको प्राप्त हुए जीव जब मरते हैं तब मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें जाकर ही मरते हैं ।।१३९।। क-१०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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