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________________ गो० कर्मकाण्डे संयमिगळोळु त्रयोदशविधत्वदिदं पेळल्पटुवु। तत्सामायिक संयमनियतक्षेत्रद्विविषकालप्रमादकृतानत्यंप्रबंधविलोपनदोळ सम्यक्प्रतिक्रिये च्छेदोपस्थापनमें बुलु विकल्पनिवृत्ति मेणु छेवोपस्थापनमक्कुं। परिहरणं परिहारः। प्राणिवध निवृत्ति यबुदथं । परिहारेण विशिष्टा विशुद्धिप्यस्मिन्स ५ परिहारविशुद्धिस्संयमः। एंदितु प्राणिपोडानिवृत्ति विशिष्ट विशुद्धियुताचरणं परिहारविशुद्धि संयममें बुदक्कुं॥ मूक्ष्मः सांपरायः कषायो यस्मिन्स सूक्ष्मसांपरायस्संयमः एंदितु संज्वलन लोभ सूक्ष्मकृष्टयनुभागानुभवयुताचरणं सूक्ष्मसांपरायसंयम, बुदु ॥ मोहनीयस्य निरवशेषस्योपामात क्षयाच्चात्मस्वभावावस्थोपेक्षालक्षणं यथाख्यातं चारित्रमित्याख्यायते। पूवंचारित्रानुष्ठायिभिर्मोहक्षयोपशमाभ्यां प्राप्तं यधाख्यातं । न तथाख्यातं। यथाशब्दस्यानंताय॑वृत्तित्वान्निखशेषमोहक्षयोपशमानंतरमाविर्भवतीत्यर्थः । तथाख्यातमिति वा। यथात्मस्वभावोऽवस्थितः तथैवाख्यातत्वात् । एंदितु प्रमत्तसंयताउनुष्ठातृळिदं दर्शनचारित्रमोहक्षयोपशमंगळिंदमनुष्ठिसल्पदुदेंतु पेळल्पद्रुदंतल्लिदु मोहनीयनिरवशेषोपशम झयंगळवमाचरिताचरणं यथाख्यातचारित्रमें बुदक्कुं। यथाशब्दक्कांतर्यात्थंवृत्तित्वमुंटप्पुरिवं । न तथाख्यातं यथाख्यातं ये वितिल्लिन तथाख्यातमें बुदे तु पडेयल्बक्कुम दोर्ड यथाख्यातशब्दसामर्थ्यदिदं पडेयल्बक्कुं। तथाख्यातमें वितु मेणु १५ यथात्मस्वभावमवस्थितमंत पेळल्पटुवरत्तमिदं । ये वितु सिद्धस्वरूपंगळप्प पंचसंयमंगळोळु www सावधाद्विरतोऽस्मीति स्वीकृतसामायिकेंऽतर्भवंति । तत एव श्रीवर्धमानस्वामिना प्रोक्तमोत्तमसंहनन जनकल्पाचरणपरिणतेषु तदेकधा चरित्रं । पंचमकालस्थविरकल्पाल्पसंहननसंयमिषु त्रयोदशधोक्तं । तन्नियतक्षेत्रद्विषाकालप्रमादकृतानर्थप्रबंधविलोपने सम्यकप्रतिक्रिया विकल्पनिवृत्तिर्वा छेदोपस्थापनं। परिहरणं परिहारः प्राणि वघनिवृत्तिरित्यर्थः । तेन विशिष्टा शुद्धिर्यस्मिन्म परिहारविशुद्धिः । सूक्ष्मः सांपरायः कषायो यस्मिन् स २० सूक्ष्मसांपरायः। मोहनीयस्य निरवशेषोपशमात् क्षयाद्वात्मस्वभावावस्थोपेक्षालक्षणः यथाख्यातः । पूर्वचारित्रा नुष्ठायिभिर्मोहक्षयोपशमाभ्यां प्राप्तं यथाख्यातं न तथाख्यातं यथाशब्दस्यानंतर्यार्थवृत्तित्वान्निरवशेषमोहक्षयोप चारित्रमें गर्भित हैं । इसीसे श्रीवर्धमान स्वामीने पूर्व में उत्तम संहननके धारी जिनकल्प आचरण परिणत मुनियोंके चारित्र सामायिकरूपमें एक प्रकारका कहा है। और पंचमकालके हीन संहननवाले स्थविरकल्पियोंमें वही चारित्र तेरह प्रकारका कहा है। सामायिक संयममें निर्धारित क्षेत्र और नियत-अनियत कालमें प्रमादवश किये गये अनर्थको दूर करने के लिए जो सम्यक प्रतिक्रिया है अर्थात् उस दोषकी शुद्धिका उपाय वह छेदोपस्थापना चारित्र है। अथवा सर्वसावद्यके भेद करके त्याग करनेको छेदोपस्थापना चारित्र कहते हैं। प्राणिहिंसासे निवृत्ति परिहारका अर्थ है। उससे विशिष्ट शुद्धि जिसमें हो वह परिहारविशुद्धि चारित्र है। जिसमें सूक्ष्म कषाय है वह सूक्ष्म साम्पराय चारित्र ३० है। समस्त मोहनीय कर्मके उपशमसे या क्षयसे आत्मस्वभावमें अवस्थिति, उपेक्षालक्षण वाला यथाख्यात चारित्र है। पूर्वचारित्रके धारियोंने मोहका उपशम या क्षय करके जिसे प्राप्त किया वह यथाख्यात चारित्र है। यथा ( अथ) शब्द अनन्तरवाची है। सो समस्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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