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________________ ९२४ गो० कर्मकाण्डे अप्रमादाल्पतर म ३० । अवक्तव्य भंग म २९ 1म३० अल्पतर ३६ ८प्र ८प्र८प्र ११ । १ ३१ | ३१ ३० | ३० २८ २९ ३ ११ अवक्तव्य १७ इल्लि रचनाभिप्रायं सूचिसल्पडुगुमे ते दोडे अप्रमत्तसंयतं देवगतितोहारयुत एकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमनेकभंगयुतमागि कटुत्तं मरणमादोड देवासंयतनागि मनुष्यगतितीफ्युत त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमनष्टभंगयुतमागि कटुगुं।८। मत्तमप्रमत्तसंयत नेकभंगयुतकत्रिशत्प्रकृतिस्थानमं कटुत्तं प्रमत्तसंयतनागि देवगतितोत्थयुतनवविंशतिस्थानमनष्टभंगयुतमागि कटुगुं। ८॥ मत्तमप्रमतसंयत नेकभंगयुत देवगत्याहारयुत त्रिशत्प्रकृतिस्थानमं कटुत्तं प्रमत्तसंयतनागि तोय. बंधप्रारंभमं माडि देवगतितीर्थयुत नविंशतिस्थानमनष्टभंगयुतमागि कटुगुं । ८॥ मत्तमप्रमत्तसंयतनाहार देवगतियुत त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमनेकभंगयुतमं कटुत्तं प्रमत्तसंयतनागि देवगतियुताष्टा. विंशतिस्थानमनष्टभंगयुतमागि कटुगुं। ८॥ मत्तमपूर्वकरणनारोहणकोळेक भंगयुत देवगतियुत चतुःस्थानंगळं कटुत्तं स्वसप्तम भागमं पोद्दि एकभंगयुतैकप्रकृतिस्थानमं कटुत्तं विरलु नाल्कुं १० स्थानंगळोळु नाल्कु भंगळप्पु-४ वितु प्रमादरहितगळल्पतरभंगंगळु षट्त्रिशत्प्रमितंगळ प्पुबुदथं ॥ अप्रमत्तः एकधा देवगतितीर्थाहारकत्रिंशत्कं बघ्नन् मृत्वा देवासंयतो भूत्वाष्टधा मनुष्यगतितीर्थत्रिंशत्कं बध्नातीत्यष्टौ । पुनः अप्रमत्तः एकधैकत्रिशत्कं बघ्नन् प्रमत्तो भूत्वा देवगतितीर्थनवविंशतिकं बनातीत्यष्टौ। पुनरप्रमत्त एकधा देवगत्याहारकत्रिशत्कं बघ्नन् प्रमत्तोभूत्वा तीर्थबन्धं प्रारम्याष्टवा देवगति तीर्थनवविंशतिकं १५ बध्नातीत्यष्टौ । पुनरप्रमत्तः एकधाहारदेवगतित्रिंशत्कं बहनन् प्रमत्तो भूत्वा अष्टषा देवगत्याष्टविंशतिकं बना तीत्यष्टो । पुनः अपूर्वकरणआरोहण एकैकषादेवगतिचतुःस्थानानि बध्नन् सप्तमभागं गत्वा एकधैककं बघ्नातीति देवगति आहारक तीर्थ सहित इकतीसको एक भंगके साथ बाँधकर अप्रमत्त मरकर देव असंयत होकर आठ भंगके साथ मनुष्यगति तीर्थ सहित तीसको बाँधे तो आठ भंग हुए । तथा अप्रमत्त एक भंगके साथ इकतीसको बाँध प्रमत्त होकर आठ भंगके साथ देवगति २० तीर्थ सहित उनतीसको बाँधे तो आठ हुए। अप्रमत्त एक भंगके साथ देवगति आहारक सहित तीसको बाँधकर तीर्थकरके बन्धका प्रारम्भ करके आठ भंगके साथ देवगति तीर्थ सहित उनतीसको बाँधे तो आठ हुए। अप्रमत्त एक भंगके साथ आहारक देवयुत तीसको बाँध प्रमत्त होकर आठ भंगके साथ देवगति सहित अठाईसको बाँधे तो आठ हुए। अपूर्व करण चढ़ता हुआ एक एक भंग सहित देवगति सहित अठाईस, देवगति तीर्थ सहित २५ उनतीस, देवगति आहारक सहित तीस, देवगति आहारक तीर्थ सहित इकतीसके स्थानको बाँधकर सातवें भागमें एक भंग सहित एक प्रकृति रूप स्थानको बाँधे तो चार भंग होते हैं, इस प्रकार छत्तीस अल्पतर होते हैं ।।५७८।। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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