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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका बावीसयादिबंधे सुदयंसा चदुतितिगि चऊ पंच । तिसु इगि छद्दो अट्ठ य एक्कं पंचैव तिट्ठाणे ॥ ६६१ ॥ द्वाविंशत्यादिबंधेषूक्यांशाश्चतुः त्रित्र्येकं चतुःपंच | त्रिष्वेक षट् द्व्यष्टौ च एक पंचैव त्रिस्थाने ॥ द्वाविंशत्यादि प्रकृतिबंधस्थानाधिकरणंगळोळ उदयांशंगळु क्रर्मादिदं चतुस्त्रितयंगळं त्र्येकंगळं त्रिषु मूरेडेयोळु चतुःपंचस्थानं गळं एकषट्स्थानंगळं द्वयष्टस्थानंगळं त्रिस्थानदोलु एकपंचस्थानं गळवु । संदृष्टि : ५३ बं | २२ २१ | १७ उ |४| ३ | सत्व | ३ | १ | ५ | ५ ४ | ४ ९ ४ ५ ५ ४ | ३ २ । १ १ । २ १ । १ । १ ६ | ८ ५।५।५ अनंतरमुदितादेयभूतोदयसत्त्वस्थानंगळं पेदपरु : दसयचऊ पढमतियं णवतियमडवीसयं णवादिचऊ | अडचउतिदुइगिवीसं अडचउ पुव्वंव सत्तं तु ॥ ६६२॥ ९९५ दशकचतुः प्रथमत्रिकं नवत्रयमष्टाविंशतिः नवादिचतुरष्ट चतुस्त्रिद्वयेकविंशतिरष्टादि चत्वारि पूर्ववत्सत्वं तु ॥ Jain Education International द्वाविंशतिबंधकगे दशादिचतुरुदयस्थानंगळु प्रथम त्रयसत्त्वस्थानंगळमप्पुवु । बं २२ । उ १० । ९।८।७ । स ८ । २७ । २६ ॥ एकविंशतिबंधकंगे नवादित्रयोदयस्थानं गळु मष्टाविंशतिसत्त्वस्थानमो देयक्कुं । बं २१ । उ९ । ८ । ७ । स २८ ॥ सप्तदशबंधकंगे नवादिचतुरुदयस्थानंगळु १५ तत्र तावद्बंधस्थानेषु द्वाविंशतिकादिषूदयस स्वस्थानान्यांद्ये चत्वारि त्रीणि, द्वितीये त्रीण्येकं, त्रिषु प्रत्येकं चत्वारि पंच, एकस्मिनेकं षट, अन्यस्मिन् द्वे अष्टौ त्रिष्वेकं पंच ॥६६१ ॥ तानि द्वाविंशतिके उदयस्थानानि दशकादीनि चत्वारि । सत्त्वस्थानान्यष्टाविंशतिकादीनि त्रीणि । प्रथम बन्धस्थानमें उदय और सत्त्वस्थान कहते हैं - बाईस आदि बन्धस्थानों में से प्रथम बाईसके स्थान में उदयस्थान आदिके चार सत्त्वस्थान तीन हैं। दूसरे बन्धस्थानमें २० उदयस्थान तीन सत्त्वस्थान एक है । आगे तीन बन्धस्थानों में से प्रत्येकमें उदयस्थान चार सत्त्वस्थान पाँच हैं। आगे एक बन्धस्थानमें उदयस्थान एक सरवस्थान छह हैं । अन्य एक बन्धस्थान में उदयस्थान दो सत्त्वस्थान आठ हैं। तीन बन्धस्थानों में उदयस्थान एक, सत्त्वस्थान पाँच हैं ||६६१|| " बाईसके बन्धस्थान में उदयस्थान दस आदि चार है। सत्त्वस्थान अठाईस आदि २५ तीन हैं । अर्थात् जिस जीवके जिस कालमें बाईसका बन्ध है उसके उदय दसका या नौका, या आठका या सातका होता है । और सत्त्व अठाईसका या सत्ताईसका या छब्बीसका १. पूर्व्वस्मिन्मुक्तादेय - अनंतानुबंधिरहित सहित मिथ्यादृष्टिय उदवकूट ८ शेळगे संख्यासादृश्यक कूटंगळ ४ । पुनरुक्तंगळ सासादनादिगळळं यितुं पुनरुक्तंगळंयोजिसि कोक्कुवुदु ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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