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गो० कर्मकाण्डे
मनुष्यं नवविंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कुं । २९ । सा म । उ परि । समुद्घात सामान्य केवलिय मूलशरीरप्रविष्टोच्छ्वास निश्वासपर्य्याप्तियोळं नववंशतिप्रकृतिस्थानोदय मक्कुं । २९ । सा के | उ. परि । मत्तमा तिर्य्यग्गतित्रसंगळ विवक्षिसल्पडुत्तिरला चतुव्विशतिप्रकृतिगळोळु अंगोपांगसंहननपरघातोद्योतविहायोगतिगळं कूतं विरलू द्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रिय पंचेंद्रियंगळ शरीर५ पर्य्याप्तियोळु नर्वावशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कुं । २२ । बि । ति । च । प । श परि । उ । मत्तः मल्लियुद्योत र हितोच्छ्वासयुतमागियुच्छ्वास निश्वासपर्याप्तियोलु नवविंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कुं । २९ । बि । ति । च । प । उ. परि । मत्तमा चतुव्विशतिप्रकृतिगलोळ मनुष्यगति विवक्षितमागुतं विरल अंगोपांग संहननपरघातप्रशस्त विहायोगतितीत्थंयुतमागि समुद्घातके वलियो
पतियो नवविंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कुं । २९ । ती के । श. परि । मत्तमा चतु१० व्विशति प्रकृतिगोळाहारकशरीरं विवक्षितमागुत्तं विरलु आहारकांगोपांगपरघातप्रशस्तविहायोगति उच्छ्वास सुस्वरयुतमागि विशेषमनुष्यप्रमत्तनोळाहारकशरीरभाषापर्याप्तियोळु नववंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कुं । २९ । प्र । आ. भा. परि । मत्तं सुरनारकरुगळ भाषापर्य्याप्तियो अविरुद्ध स्वरमोदं कूडिदोर्ड देवनारकरुगळ भाषापर्य्याप्तियोळ नवविंशतिप्रकृतिस्थानोदयमक्कुं । २९ । दे। ना । भा. परि । मत्तमा चतुव्विशतिप्रकृतिगोळु अंगोपांग संहननपरघातोद्योत१५ विहायोगति उच्छ्वासमं कूडिवोर्ड द्वीद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रिय पंचेद्रियंगळ उच्छ्वासपर्व्याप्तियोळ
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परघातप्रशस्त विहायोगतितीर्थेषु युतेष्विदं ॥ २९ ॥ वा प्रमत्तस्याहारकशरीरभाषापर्याप्त्यिास्तदंगोपांगपरघातप्रशस्त विहायोगत्युच्छ्वास सुस्वरेषु युतेष्विदं ॥ २९ ॥ वा देवनारकयोर्भाषापर्याप्तो अविरुद्धकस्वरे युते इदम् ॥ २९ ॥
पुनः तत्रैव द्वित्रिचतुष्पं चेन्द्रियाणामुच्छ्वासपर्याप्तावुद्योतेन समं सामान्य मनुष्य सकल विकलानां भाषापर्याप्तौ स्वरद्वयान्यतरेण समं चांगोपांग संहननपरघातविहायोगत्युच्छ्वासेषु युतेष्विदं ॥ ३०॥ वा समुद्घाततीर्थंकर के वलिनः उच्छ्वासपर्याप्तौ तीर्थेन समं, सामान्यसमुद्घातकेवलिनो भाषापर्याप्तो स्वरद्वयाचौबीस में औदारिक अंगोपांग, संहनन, परघात, प्रशस्त विहायोगति, तीर्थंकर मिलने पर समुद्घात तीर्थंकर केवलीके शरीर पर्याप्ति में उदययोग्य उनतीसका स्थान होता है । अथवा चौबीसमें आहारक अंगोपांग, परघात, प्रशस्त विहायोगति, उच्छ्वास, सुस्वर मिलनेपर प्रमत्तके आहार शरीरकी भाषापर्याप्ति में उदययोग्य उनतीसका स्थान होता है । अथवा देव की अठाईसके स्थान में देवके सुस्वर, नारकीके दुःस्वर मिलानेपर देव नारकी के भाषा पर्याप्ति में उदय योग्य उनतीसका स्थान होता है । इस तरह उनतीस के छह स्थान होते हैं ।
चौबीसके स्थानमें अंगोपांग, संहनन, परघात, विहायोगति, उच्छ्वास मिलने पर उनतीस हुए। इनमें उद्योत मिलनेपर दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रियके उच्छ्वास पर्याप्ति में उदययोग्य तीसका स्थान होता है । अथवा दो स्वरोंमें से एक मिलनेपर सामान्य मनुष्य अथवा पंचेन्द्रिय अथवा विकलत्रय में भाषा पर्याप्तिमें उदययोग्य तीसका स्थान होता है । अथवा चौबीस में औदारिक अंगोपांग, वज्रवृषभ नाराच संहनन, परघात, प्रशस्त विहायोगति और उच्छ्वास मिलनेपर उनतीस होते हैं, उसमें तीर्थंकर प्रकृति मिलानेपर
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