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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका १२७१ मोवल्गोंडसंख्यातलोकमात्रषट्स्थानंगळु नडदु पट्टिदप्पुरिद । मितु अधस्तनपूर्वपूर्वसमयोत्कृष्टविशुद्धिस्थानमं नोडलुपरितनोपरितनसमयसर्वजघन्यविशुद्धिस्थानमनंतगुणमक्कुं। स्वजघन्यमं नोडलु स्वोत्कृष्टमनंतगुणमक्कु। मोयपूर्वकरणप्रतिसमयविशुद्धिस्थानंगळोपरितनोपरितनसमयविशुद्धिस्थानंगळधस्तनाधस्तनविशुद्धिपरिणामस्थानंगळोडनों दुं समानमल्ळप्पुरिदमी करणमपूर्वकरणमेब पेसरनु दादुदु । अदुकारणदिदमपूर्वकरणपरिणामंगळ्गनुकृष्टि विशेषमिल्लेदु पेळल्पटुदपूर्वकरणकाल प्रथमसमयं मोदल्गोंडु चरमसमयपयंतमेकजीवापेक्षेयि प्रतिसमयमनंतगुण विशुद्धिस्थानंगळप्पुवु। नानाजीवापेयिदं त्रिकालगोचरंगळप्प विशुद्धिस्थानंगळु सदृशंगळु मेणनंतभागासंख्यातभागसंख्यातभागसंख्यातगुणासंख्यातगुणानंतगुणविशुद्धिस्थानंगलप्पुर्वबुदपूर्वकरणरचनाभिप्रायमक्कु । मनंतरमनिवृत्तिकरणपरिणामस्वरूपम पेळ्दपरु ।: एक्कम्मि कालसमये संठाणादीहि जह णिवट्ठति । ण णिवटुंति तहवि य परिणामेहि मिहो जे हु॥९११॥ एकस्मिन्कालसमये संस्थानादिभिर्व्यथा निवर्तते । न निवर्तते तथैव च परिणामम्मियो ये खलु॥ द्वितीयसमयजघन्यविशुद्धिपरिणामोऽनन्तगुणः । ततस्तदुत्कृष्टोऽनन्तगुणः एवमाचरमसमयं ज्ञातव्यं । यत उपरितनसमयपरिणामा अधस्तनसमयपरिणामः सदृशा न ततोऽयमपूर्वकरण इत्याख्यायते ॥९१०॥ अथानि- १५ वृत्तिकरणस्वरूपमाह २० परिणामोंका प्रमाण होता है। द्वितीयादि समयोंमें परिणामोंका प्रमाण लाने के लिए एक-एक चय मिलाना चाहिए । इस प्रकार एक कम गच्छ प्रमाण चय मिलानेपर अन्त समय सम्बन्धी परिणामोंका प्रमाण होता है। ऊपर टीकामें जो संदृष्टि दी है उसका अर्थ इस प्रकार है अपूर्वकरणका सर्वधन अधःप्रवृतकरणके सर्वधनसे असंख्यात लोक गुणा है। उसमें प्रथम समयसम्बन्धी परिणाम असंख्यात लोक प्रमाण है। उससे द्वितीयादि समयों में भी असंख्यात लोक प्रमाण ही परिणाम है। तथापि एक-एक चय बढ़ते-बढ़ते हुए हैं। प्रथम समयसम्बन्धी जघन्य विशुद्धि परिणाम अधःप्रवृत्तकरणके अन्तसमयके अन्तिम अनुकृष्टि खण्डके विशुद्धि परिणामसे अनन्तगुणे हैं। उससे प्रथम समयसम्बन्धी उत्कृष्ट विशुद्धि २५ परिणाम अनन्तगुणा है । क्योंकि अपूर्वकरणमें भी असंख्यात लोक प्रमाण षट्स्थान होते हैं। उससे दूसरे समय सम्बन्धी जघन्य विशुद्धि परिणाम अनन्तगुणा है। इसी प्रकार अन्तिम समय पर्यन्त जानना । यहाँ ऊपरके समयोंमें होनेवाले परिणाम नीचेके समयमें होनेवाले परिणामोंके समान कभी भी नहीं होते इसीसे इसका नाम अपूर्वकरण है ॥९१०॥ आगे अनिवृत्तिकरणका स्वरूप कहते हैं ३० क-१६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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