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गो० कर्मकाण्डे
विपाकजीवविपाकित्यदिनाविन्भूतंगळप्प पंचइंद्रियाणि एष्विति पंचेंद्रिया जीवा ये वितु पंचेंद्रियत्वसादृश्यसामान्यव्यापकदिदं व्याप्त नारकतिथ्यंग्मनुष्यदेववर्कलोळु व्याप्यत्व दिवं पंचेद्रियत्वं सिद्धमक्कुमेर्क दोर्ड—
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"व्यापकं तवतन्निष्ठं व्याप्यं तन्निष्ठमेव हि ।
व्याप्यं तु गमकं प्रोक्तं व्यापकं गम्यमिष्यते ॥"
एंदितु व्यापकमप्प पंचेंद्रियत्वं तन्निष्ठमुमतन्निष्ठमुमक्कुं । व्याप्यं तन्निष्ठ मेयपुर्वारदं पंचेंद्रियत्वं नारकरोळं तिय्यंचादिगळोळ मक्कुं ।
नारकत्वं नारकरोळेयक्कुं तिर्य्यंगादित्वं तिर्य्यगाविगळोळेयक्कुमेंबुवत्थं । मत्तं तद्भव - सामान्यपेक्षयदं ॥
"धर्मे धर्मेन्य एवात्थों धम्मिणोऽनंतधर्म्मणः ।
अंगित्वेन्यतमांतस्य शेषांतानां तदंगता ॥ " - आप्तमी० २२ का० ।
पंचसु च मार्गणासु तदादिषट्कमष्टाविंशतिकं विना, चतुश्चतुर्मनोवाग्येोगेऽददारिककाययोगे च सर्वाणि वैक्रियिकतन्मियोगयोर्देवगत्युक्तानि चत्वारि ॥ ५४५ ॥
विशेष – केशव वर्णी की कन्नड़ टीका गा. ५४५ में विस्तारसे नयोंकी चर्चा है । उसके १५ संस्कृत रूपान्तरकार नेमिचन्द्र टीकाकारने उसे अपनी संस्कृत टीकामें छोड़ दिया है । इसीसे पं. टोडरमलजीकी टीकामें भी उसका अनुवाद नहीं आ सका है।
गोम्मटसारके कलकत्ता संस्करण में कर्मकाण्ड पृ. ७०४ पर टिप्पण रूपमें लिखा है कि अभयचन्द्र के नामसे अंकित इसकी टीकामें नीचे लिखा अधिक पाठ पाया जाता है । हमने उसे कन्नड़ टीकासे मिलाया तो वह अक्षरशः मिल गया । इससे यहाँ उसका हिन्दी २० अनुवाद दिया जाता है - सं.
[ यह पंचेन्द्रियत्व नारकियों में, संज्ञी-असंज्ञी तियंचोंमें, मनुष्योंमें और देवोंमें होता है । भवके प्रथम समय में पंचेन्द्रिय नामकर्मके उदयसे प्रकट पाँच इन्द्रियाँ इनमें हैं, अत: पंचेन्द्रिय हैं ।
पंचेन्द्रियत्वरूप सादृश्य सामान्य व्यापक है और वह नारक, तियंच, मनुष्य और २५ देवोंमें व्याप्त है । कहा है
'जो व्यापक होता है वह तत् में भी रहता है और अततुमें भी रहता है, किन्तु जो व्याप्य होता है वह तत् में ही रहता है । अतः व्यापक गमक होता है और व्यापक गम्य होता है ।' अतः पंचेन्द्रियत्व व्यापक है क्योंकि वह नारक, तिर्यच, मनुष्य, देव सबमें पाया जाता है । किन्तु नारकपना नारकियों में ही पाया जाता है, तियंचपना तियं चोंमें ही पाया ३० जाता है । यह तद्भव सामान्यकी अपेक्षा जानना । कहा है
संजय संज्ञितिर्यक्षु मनुष्येषु देवेषु च स्यात् । भवप्रथमसमये पंचेंद्रियनामोदयाविर्भूत पंचेद्रियाण्येष्विति पंचेंद्रियाः, तस्य सादृश्यसामान्यत्वात् ।
धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थो धर्मिणोऽनंतधर्मणः । अंगित्वेऽन्यतमांगस्य शेषांतानां तदंगता ॥१॥
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