SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १० गो० कर्मकाण्डे विपाकजीवविपाकित्यदिनाविन्भूतंगळप्प पंचइंद्रियाणि एष्विति पंचेंद्रिया जीवा ये वितु पंचेंद्रियत्वसादृश्यसामान्यव्यापकदिदं व्याप्त नारकतिथ्यंग्मनुष्यदेववर्कलोळु व्याप्यत्व दिवं पंचेद्रियत्वं सिद्धमक्कुमेर्क दोर्ड— ८०८ "व्यापकं तवतन्निष्ठं व्याप्यं तन्निष्ठमेव हि । व्याप्यं तु गमकं प्रोक्तं व्यापकं गम्यमिष्यते ॥" एंदितु व्यापकमप्प पंचेंद्रियत्वं तन्निष्ठमुमतन्निष्ठमुमक्कुं । व्याप्यं तन्निष्ठ मेयपुर्वारदं पंचेंद्रियत्वं नारकरोळं तिय्यंचादिगळोळ मक्कुं । नारकत्वं नारकरोळेयक्कुं तिर्य्यंगादित्वं तिर्य्यगाविगळोळेयक्कुमेंबुवत्थं । मत्तं तद्भव - सामान्यपेक्षयदं ॥ "धर्मे धर्मेन्य एवात्थों धम्मिणोऽनंतधर्म्मणः । अंगित्वेन्यतमांतस्य शेषांतानां तदंगता ॥ " - आप्तमी० २२ का० । पंचसु च मार्गणासु तदादिषट्कमष्टाविंशतिकं विना, चतुश्चतुर्मनोवाग्येोगेऽददारिककाययोगे च सर्वाणि वैक्रियिकतन्मियोगयोर्देवगत्युक्तानि चत्वारि ॥ ५४५ ॥ विशेष – केशव वर्णी की कन्नड़ टीका गा. ५४५ में विस्तारसे नयोंकी चर्चा है । उसके १५ संस्कृत रूपान्तरकार नेमिचन्द्र टीकाकारने उसे अपनी संस्कृत टीकामें छोड़ दिया है । इसीसे पं. टोडरमलजीकी टीकामें भी उसका अनुवाद नहीं आ सका है। गोम्मटसारके कलकत्ता संस्करण में कर्मकाण्ड पृ. ७०४ पर टिप्पण रूपमें लिखा है कि अभयचन्द्र के नामसे अंकित इसकी टीकामें नीचे लिखा अधिक पाठ पाया जाता है । हमने उसे कन्नड़ टीकासे मिलाया तो वह अक्षरशः मिल गया । इससे यहाँ उसका हिन्दी २० अनुवाद दिया जाता है - सं. [ यह पंचेन्द्रियत्व नारकियों में, संज्ञी-असंज्ञी तियंचोंमें, मनुष्योंमें और देवोंमें होता है । भवके प्रथम समय में पंचेन्द्रिय नामकर्मके उदयसे प्रकट पाँच इन्द्रियाँ इनमें हैं, अत: पंचेन्द्रिय हैं । पंचेन्द्रियत्वरूप सादृश्य सामान्य व्यापक है और वह नारक, तियंच, मनुष्य और २५ देवोंमें व्याप्त है । कहा है 'जो व्यापक होता है वह तत् में भी रहता है और अततुमें भी रहता है, किन्तु जो व्याप्य होता है वह तत् में ही रहता है । अतः व्यापक गमक होता है और व्यापक गम्य होता है ।' अतः पंचेन्द्रियत्व व्यापक है क्योंकि वह नारक, तिर्यच, मनुष्य, देव सबमें पाया जाता है । किन्तु नारकपना नारकियों में ही पाया जाता है, तियंचपना तियं चोंमें ही पाया ३० जाता है । यह तद्भव सामान्यकी अपेक्षा जानना । कहा है संजय संज्ञितिर्यक्षु मनुष्येषु देवेषु च स्यात् । भवप्रथमसमये पंचेंद्रियनामोदयाविर्भूत पंचेद्रियाण्येष्विति पंचेंद्रियाः, तस्य सादृश्यसामान्यत्वात् । धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थो धर्मिणोऽनंतधर्मणः । अंगित्वेऽन्यतमांगस्य शेषांतानां तदंगता ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy