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________________ ८४४ गो० कर्मकाण्डे मनुष्यतिव्यंचरुगळप्प देशसंयतरु गळुमसंयतरुगळ मुत्कृष्टविंदमच्युतकल्पपयंतं पुटुवरु। अध्यधिदं जिनरूप महाव्रतिगळ भावविदमसंयतदेशसंयतरं मिथ्यादृष्टिजीवंगळ मुपरिमप्रैवेयकपथ्यंत पोगि पुटुवरु । इंतप्प निर्वृत्यपर्याप्त मिथ्यादृष्टि देवासंयमिगळोळ भवनत्रय कल्पजस्त्री सौधर्माद्वय निर्वृत्यपर्याप्त मिथ्यादृष्टि देवासंयमिगळुमेकेंद्रियपर्याप्तयुतपंचविंशति प्रकृतिस्थान५ मुमनातपोद्योतयत पर्याप्त तिय्यंग्गत्येकेंद्रिययुत षड्विशतिस्थानमुमं पंचेंद्रियपर्याप्ततियंग्गति युतनवविंशति प्रकृतिस्थानमुमं उद्योतयुत त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुमं मनुष्यगतियुत नवविंशतिप्रकृतिस्थानमुमं. कटुवर । सानत्कुमारादि वशकल्पज मिथ्यादृष्टि निर्वृत्यपर्याप्त वेवासंयमिगळ पंचेंद्रियपर्याप्त तिय्यंगतियुतनविंशति प्रकृतिस्थानमुमं मनुष्यगतियुत नविंशति प्रकृतिस्थान मुमनुद्योतयुततिर्यरूपंचेंद्रिययुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुमं कटुवरेके दोडे "आईसाणोत्ति सत्त वाम १० छिदी" एंविल्लि येकेंद्रियपर्याप्तयुतादि बंधस्थानंगळिल्लप्पुरिदं । आनतायुपरिमवेयकावसान माव कल्पजरुगळु कल्पातीतजरुगळप्प निर्वृत्यपर्याप्त मिथ्यादृष्टि देवासंयमिगळु मनुष्यगतियुत नवविशति प्रकृतिस्थान मनों वने कटुवरेक दोडे "सदरसहस्सारगोत्ति तिरियदुगं। तिरियाऊ उज्जोमओ अत्यि तवो पत्थि सदरचऊ।" एंदितु तिर्यग्गतियुत नवविंशतित्रिशत्प्रकृतिस्थानंगळ बंधमिल्लप्पुरिवं ॥ यितु संक्षेपविवं देवगत्यसंयमिमिथ्यादृष्टिगळ्णे नामकर्मबंध तिर्यग्मनुष्या देशसंयता असंयताश्चोत्कृष्टेनाच्युतांतमुत्पद्यते। द्रव्यतो जिनरूपमहाव्रताः भावतोऽसंयतपेशसंयतमिथ्यादृष्टयः उपरिमौवेयकांतमुत्पद्यते। सोऽयं नित्यपर्याप्तमिथ्याष्टिः भवनत्रयकल्पस्त्रीसौधर्म यजः तदा एकेंद्रियपर्याप्तयुतपंचविंशतिकातपोद्योतयुतपर्याप्ततिर्यग्गत्येकेंद्रिययुतषड्विंशतिकपंचेंद्रियपर्याप्ततिर्यग्गतियुतमनुष्यगतियुतनवविंशतिकोद्योतयत्रिशकानि बध्नाति । सानत्कुमारादि दशकल्पजस्तदा पंचेंद्रियपर्याप्ततिर्यग्गतियुतमनुष्यगतियुतनवविंशतिकोद्योतयुततिर्यवपंचेंद्रिययुतत्रिंशत्के एव, २० आईसाणोत्ति सत्तवामछिदीत्येकेंद्रियपर्याप्तादियुतस्थानानामबंधात् । आनताद्युपरिमवेयकांतजस्तदा मनुष्य गतियुतनवविंशतिकमेव । तिरियदुर्ग तिरियाऊ उज्जोओ पस्थीति तिर्यग्गतियुतनवविंशतिकत्रिंशत्कयोरबंधात् । तथा द्रव्यसे जिनरूप महाव्रतके धारी और भावसे असंयत अथवा देशसंयत अथवा मिथ्यादृष्टि उपरिम अवेयक पर्यन्त उत्पन्न होते हैं । इन उत्पन्न हुए देवोंमें निवृत्यपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि भवनत्रिक देव, वा कल्पवासिनी २५ स्त्री और सौधर्म युगलके देव, एकेन्द्रिय पर्याप्त सहित पच्चीसका, आतप उद्योतके साथ पर्याप्त तियंचगति एकेन्द्रिय सहित छब्बीसका, अथवा पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियंचगति सहित या मनुष्यगति सहित उनतीसका अथवा उद्योत सहित तीसका बन्ध करते हैं; सानत्कुमार आदि दस कल्पोंमें उत्पन्न हुए देव पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियंचगति या मनुष्यगति सहित उनतीसका अथवा उद्योत तियंचगति पंचेन्द्रिय सहित तीसका बन्ध करते हैं। क्योंकि ३. 'आईसाणोत्ति सत्तवामछिदी' इस कथनके अनुसार एकेन्द्रिय पर्याप्त आदि सहित स्थानोंका बन्ध उनके नहीं होता। आनतादि उपरिम अवेयकोंमें उत्पन्न हुए देव मनष्यगति सहित उनतीसका ही बन्ध करते हैं। क्योंकि इनमें तियंचगति सहित उनतीस और तीसका बन्ध नहीं होता। इस प्रकार संक्षेपसे देवगतिमें असंयमी मिध्यादृष्टियोंके नामकर्मके बन्धस्थान कहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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