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________________ कणाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका चरकर दडे नग्नांडरु। परिवाजकरें दोडकदंडित्रिदंडिगठिवर्गळ त्कृष्टदिदं भवनत्रयं मोदल्गोंडु ब्रह्मकल्पपरियंतं पुटुबरु । आजोवा कांजिभिक्षुगळ त्कृष्टदिदं भवनत्रयं मोदल्गोंडु अच्युतकल्पपथ्यंतं पुटुबरु । अनुदिशानुतरविमानंगळिदं बंदवर्गळ नव वासुदेव प्रतिवासुदेवरागि पुट्टरेके दोडवर्गळु द्विचरमांगरप्पुरिदमी नरकगामिगळागि पुहरे बुदत्थं । मत्तं सादि अनादि अभव्यरेब त्रिविधमिथ्यादृष्टिळु अर्हच्छ्तनहल्लिगवंतग अनशनावनोदर्यवृत्तिपरिसंख्यान ५ रसपरित्याग विविक्तशयनासन कायक्लेशम ब ब्राह्यविधतपश्चरणनिरतरं त्रिकालदेववंदनादि समेतरुगळप्परुं दर्शनमोहचारित्रमोहपातिकम्र्मोदयसद्भावमुझळवर्गाळ उपशमब्रह्मचर्यादि समेतरुमळु कलंबरु मनुष्यरुगळु मिथ्यादृष्टि द्रव्य महावतिगपरिमणैत्रेयकपर्यंतमुत्कृष्टदिद मेकत्रिंशत्सागरोपमदेवायुःस्थितिबंधमं माडि भुज्यमानमनुष्यायुःक्षयवदिदं मृतरागि पोगि नवप्रैवेयकंगळोळ यथायोग्याहमिद्ररुगळ मागियुं पुट्टि यावच्छरीरमपूर्ण तावत्कालं निर्वृत्यपर्याप्त १० मिथ्यादृष्टि देवासंयमिगळप्पल्लिदं मेलणनुदिशानुत्तरविमानंगळोळ मिथ्यादृष्टिगळ पोगि पुटु वरु मिल्लल्लियु मिथ्यात्वकर्मोदयमुमिल्ल मिल्लिगुपयोगिगाथासूत्रमिदु : णरतिरिय देसअयदा-उक्कस्सेणच्चुदोत्ति णिग्गंथा। ण अयददेस मिच्छा गेवेज्जतोति गच्छंति ॥-[त्रि. सा. ५४५ गा.] चरया य परिबाजा बह्मोत्तच्नुदपदोत्ति आजीवा । अणुदिसअणुत्तरादो चुदा ण केसवपदं जंति ॥१॥ चरकाः नग्नांडाः परिव्राजकाः एकत्रिदंडिनः एते उत्कृष्टेन भवनत्रयादिब्रह्मकल्पांतमुत्पद्यते । आजीवाः कांजीभिक्षवः उत्कृष्टेन भवनत्र याद्यच्युतांतमुत्पद्यते । अनुदिशानुत्तरविमानागताः द्विचरमांगत्वात् वासुदेवप्रतिवासुदेवेषु नरकगामिषु नोत्पद्यते । साधनाद्य भव्यमिथ्यादृष्टयः अर्हच्छ्रतलिंगधराः बाह्यषड्विधतपोनिरतास्त्रिकालदेववंदनादिसमेताः दर्शनचारित्रमोहघातिकर्मोदयाः उपशमब्रह्मचर्यादिसमेताः केचिद् द्रव्यमहा-.. व्रताः उपरिमवेयकांतमत्पद्यते न तत उपरि । अत्रोपयोगिगाथा सूत्र णरतिरियदेसअयदा उक्कस्सेणच्चुदोत्ति णिग्गंथा। णरअयददेसमिच्छा गेवजंतोत्ति गच्छंति ॥१॥ चरक अर्थात् नग्नाण्डक, परिव्राजक अर्थात् एकदण्डी त्रिदण्डी संन्यासी, ये उत्कृष्टसे ब्रह्मोत्तर स्वर्ग पर्यन्त उत्पन्न होते हैं। आजोवक अर्थात् कांजीका आहार करनेवाले भिक्षु २५ उत्कृष्ट से अच्युत स्वर्ग पर्यन्त उत्सन्न होते हैं। अनुदिश अनु तर विमानवासी देव द्वि चरम शरीरी होते हैं अतः मरकर नरकगामी नारायण प्रतिनारायण आदि नहीं होते। सादि वा अनादि अभव्य मिथ्यादृष्टि जो अर्हन्तके द्रव्यलिंगके धारी होते हैं, छह प्रकारके बाह्य तपमें मग्न रहते हैं, त्रिकाल देववन्दना आदि क्रिया करते हैं, किन्तु जिनके दर्शनमोह चारित्रमोह ना मक घातिकमका उदय रहता है, उपशम ब्रह्मचर्य आदि सहित होते हैं ऐसे द्रव्यलिंगी उपरिम प्रैवेयक पर्यन्त उत्पन्न होते हैं उससे ऊपर नहीं। यहाँ उपयोगी गाथा कहते हैं देशसंयत अथवा असंयत तियंच मनुष्य उत्कृष्टसे अच्युत स्वर्ग पर्यन्त उत्पन्न होते हैं। ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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