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________________ ८४२ गो० कर्मकाण्डे पंचेंद्रियपर्याप्ततिय्यंच भद्रमिथ्यादृष्टि जीवंगळं स्वयंभूरमणद्वीप स्वयंप्रभाचलापरभागार्द्धद्वीपवोळ स्वयंभूरमणसमुद्रदोळ लवणकाळोदसमुद्रंगळोळ केलवु संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तस्थलचरखचर जलचरभद्र मिथ्यादृष्टितिय्यंचरुगळ मत्तं मनुष्यक्षेत्रप्रतिबद्धकर्मभूमिभरतैरावतविदेहंगळोळ. पशमब्रह्मचर्यसमन्वितरप्प वानप्रस्थरुगळे क जटिशतजटि सहस्रजटि नग्नांड कांजिभिक्षु कंदमूल पत्रपुष्पफलभोजिगळ मकामनिर्जराबालपांसि देवस्य "एंवितेकदंडि त्रिदंडि मिथ्यातपश्चरणपरिणतरुग कायक्लेशाचरणंगळिदं केलंबरु स्वस्व विशुध्यनुसारविदं देवायुष्यमं कट्टि भुज्यमानमनुष्यायुष्यक्षयवशदिदं मृतरागि भवनत्रयं मोदल्गोंडुत्कृष्टदिदमच्युतकल्पपयंतं पुट्टि यावच्छरीरमपूणं तावत्कालपर्यंत मिथ्यादृष्टिनित्यपर्याप्तदेवासंयमिगळप्पर । इल्लि अकाम नि रे ये बुदु बंधनदिदं चार निरोधमकामम बुदु । बंधनंगळोळ क्षुत्पिपासानिरोधब्रह्मचर्य १० भूशयन मलधारणपरितापादिगळे बुदर्जमदरिदं बयसुव वेदनाविपाकलक्षणनि रणमल्तप्पु. दरिंदमकामनिर्जरयेदु पेळल्पटुडु । बालपंगळे बुवु मिथ्यादर्शनोपेतंगळ - मनुपायकायक्लेशप्रचुरंगळु निष्कृतिबहुलव्रतधारणंगळुमप्पुवी बालतपंगळेतप्परोळे दोडिल्लिगे प्रस्तुतगाथासूत्रंगळ : चरया य परिव्वाजा बलोंतच्चुदपदोंत्ति आजोवा । अणुविस अणुत्तरादों चुदा ण केसवपदं जांति ॥-[त्रि. सा. ५४७ गा.] मिथ्यादृष्टयो भोगभूमिजास्तापसाश्च वरमुत्कृष्टेन भवनत्रये उत्पद्यते नान्यत्र । भरतैरावतविदेहजाः स्वयंभूरमणद्वीपापरार्धतत्समुद्रलवणोदकालोदजाश्च केचित् जलस्थलखचरसंशिपर्याप्तभद्रमिथ्यादृष्टयः उपशमब्रह्मचाँकितवानप्रस्थाः एकजटिशतजटिसहस्रजटिनग्नांडकांजीभिक्षुकंदमूलपत्रपुष्पफलभुजः अकामनिर्जरा एकदंडि त्रिदंडिमिथ्यातपश्चरणपरिणताश्च कायक्लेशाचरणैः केचित् स्वस्वविशुद्धयनुसारेण भवनत्रयाद्यच्युतांत२० मुत्पद्यते । अकामैः अनभिलषितः बंधनेन क्षुत्पिपासानिरोधब्रह्मचर्यभूशयनमलधारणपरितापादिभिनिर्जरा अकामनिर्जरेत्युच्यते । मिथ्यादर्शनोपेताः अनुपायकायक्लेशप्रचुराः निकृतिबहुलव्रतधराः बालतपसः । तदुत्पत्ति. प्रस्तुतगाथासूत्रसौधर्मयुगलमें उत्पन्न होते हैं। और मिथ्यादृष्टि भोगभूमिया तथा उत्कृष्ट तापसी भवनत्रिकमें उत्पन्न होते हैं। अन्यत्र उत्पन्न नहीं होते। भरत-ऐरावत-विदेहमें उत्पन्न हुए, तथा स्वयंभूरमण द्वीपके अपराध, स्वयंभूरमण, लवणोद कालोद समुद्रोंके वासी कोई जीव थलचर, नभचर, संज्ञी पर्याप्त मिथ्यादृष्टि, तथा उपशम ब्रह्मचर्य सहित वानप्रस्थ, तथा एकजटी, शतजटी, सहस्रजटी, नग्नाण्डक, कांजी भक्षण करनेवाले, कन्दमूल पत्र पुष्प फलके खानेवाले, अकामनिर्जरा करनेवाले, एकदण्डी, त्रिदण्डी, मिथ्यातपश्चरण करनेवाले कायक्लेशरूप आचरणके द्वारा अपनी-अपनी विशुद्धि के अनुसार भवनत्रयसे लेकर अच्युत स्वर्ग पर्यन्त उत्पन्न होते हैं। अकाम अर्थात् अपनी ३० इच्छाके बिना बन्धनमें पड़नेपर भूख-प्यासको सहना, ब्रह्मचर्य धारण करना, पृथ्वीपर सोना, मलधारण, परिताप आदिके द्वारा जो निर्जरा होती है वह अकाम निर्जरा है। मिथ्यादर्शन सहित और मोक्ष उपायरहित, बहुत कायक्लेश पूर्वक कपटरूप व्रत धारण करना बालतप है। इनसे भी देवगतिमें जन्म होता है। इस विषयमें प्रासंगिक गाथा कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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