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________________ १० १५ गो० कर्मकाण्डे प्रशस्त प्रकृतिर्त्वादिदमाहारकमं मुन्नं चतुर्गतियमिथ्यादृष्टिजीवनुद्वेल्लनमं माळ्कुं । ततः पश्चात् सम्यक्त्वं सम्यक्त्व प्रकृतियनुद्वेल्लनमं माळ्कुं । तु बळिक्कं सम्यग्मिथ्यात्वं मिश्रप्रकृतियनुद्वेल्लन माडि किडि । ततः बळिक्कं शेषसुरद्विकाद्युद्वेल्लनप्रकृतिगळुद्वेल्लनमनेकः एकेंद्रियमुं विकलश्च विकलेंद्रियंगळं सकलश्च सकर्लेन्द्रियंगळं माळकुं ॥ अनंतर मुद्वेल्लनप्रकृतिगळगुद्द्वेल्लनावसरकालमं पेव्वपरा :arratri काले आहारं उवसमस्स सम्मत्तं । सम्ममिच्छं वेगे वियले वेगुव्वछक्कं तु ॥ ६१४ ॥ वेदrयोग्ये काले आहारमुपशमस्य सम्यक्त्वं । सम्यग्मिथ्यात्वं चैकेंब्रियविकले वैक्रियिकषट्कं तु ॥ ९६४ वेदकयोग्यकालदोळाहारकममुद्वेल्लनमं माडुगुमुपशमकालदोळु सम्यक्त्व प्रकृतियुमं सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियुमनुर्व ल्लनमं माळकुं । एकेंद्रियदोळं विकलत्रयवोळं वैक्रियिकषट्क मुद्द्वेल्लनमक्कुं ॥ अनंतरं वेद योग्यकालमुमनुपशमकालमुमं पेळदपर : उदधिपुधत्तं तु तसे पल्ला संखूण मेगमेयक्खे | जावय सम्मं मिस्तं वेदगजोग्गो य उवसमस्स तदो || ६१५ || उदधिपृथक्त्वं च त्रसे पल्यासंख्योनमेकमेकाक्षे । यावत्सम्यक्त्वं मिश्रं वेवकयोगश्चोपश मस्य ततः ॥ प्रशस्तत्वादाहारकद्वयं पूर्वं चतुर्गतिकमिध्यादृष्टि: उद्वेल्लयति, ततः पश्चात् सम्यक्त्व प्रकृति, ततः पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति, ततः पश्चात् शेषसुरद्विकादीन्ये केन्द्रियो विकलेन्द्रिय सकलेन्द्रियश्च ॥६१३॥ २० तदुद्वेल्लनाव सरकालमाह- वेदकयोग्यकाले आहारकद्वयमुद्वेल्लयति । उपशमकाले सम्यक्त्वप्रकृति सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति च । एक विकलेन्द्रियेषु वैक्रियिकषटुकं ॥ ६१४ ॥ तो कालौ लक्षयति आहारकद्विक प्रशस्त प्रकृति है अतः चारों गतिके मिध्यादृष्टि पहले आहारकद्विककी उद्वेलना करते हैं। उसके पश्चात् सम्यक्त्व प्रकृतिकी, उसके पश्चात् सम्यक मिध्यात्व २५ प्रकृतिको उद्वेलना करते हैं। उसके पश्चात् शेष देवद्विक आदिको उद्वेलना एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय करते हैं || ६१३ ॥ उस उद्वेलनाके अवसरका काल कहते हैं वेदकयोग्यकाल में आहारकद्विककी उद्वेलना करता है । और उपशम कालमें सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यकू मिध्यात्व प्रकृतिको उद्वेलना करता है । एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव ३० वैक्रियिकषटककी उद्वेलना करते हैं ||६१४॥ उन दोनों कालोंके लक्षण कहते हैं १. म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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