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________________ मिथ्यात्वं बध्यमानमागुत्तिदोंडं मिथ्यादृष्टियोळु अधःप्रवृत्त संक्रमण मिल्ले के दोडे सगुण५ द्वाणम्मि णेव संकमदि एंदितु निषेधमुंटप्पुर्दारदं । संदृष्टिः १० ६६४ गो० कर्मकाण्डे विध्यात संक्रमण मल्ल ॥ एत्तो गुणो अबंधे एंदितु गुणसंक्रमणलक्षण रहितत्वदिवं गुण संक्रमणमिल्ल । मुपेन्द बावण्ण प्रकृतिगळोळ पाठियिसल्पडववप्पुदरिदं सर्व्वसंक्रमणमिल्लदु कारणमागि अष:प्रवृत्तसंक्रममो देयक्कु । इंर्तल्ला प्रकृतिगळा व्यतिरेकं विचारणीयमकुं । २५ सा सं पं तै स व अ प सू १४ १ उ प्र त्र नि कूडि १ | १ | २ | १ | ४ | १ | १ 11 | १ तुम स्त्यानगृद्धत्रिक द्वादशकषायंगळं षंढवेदमं स्त्रोवेदमुं अरतियुं शोकमं :तिरिएयारं तीसे उब्वेल्लणहीण चारि संकमणा । णिद्दापला असुहं वण्णचउक्कं च उवघादे ॥४२१ ॥ Jain Education International | १ | १० | १ | ३९ १ तिथ्यंगेकादश त्रिशत्सू वेल्लनहीन चत्वारि संक्रमणानि । निद्राप्रचलाशुभवर्णचतुष्कोपघाते ॥ सत्तण्हं गुणसंकममधापवतो य दुक्खमसुहगदी । संहदिसंठाणदसं णीचा पुण्ण थिरछक्कं च || ४२२॥ सप्तानां गुणसंक्रमोऽधः प्रवृत्तश्च दुःखमशुभगतिः । संहनन संस्थानदशकं नोचापूर्ण स्थिरषट्कं च ॥ इत्यप्रमत्तगुणाभ्यंतरे बंधच्छेदाभावान्न विष्यात संक्रमणं । 'एत्तो गुणो अबंधे' इति न गुणसंक्रमणं । प्रागुक्तवा१५ वण्णे पाठाभावान्न सर्वसंक्रमणं तेनाधः प्रवृत्तसंक्रमणमेकमेव स्यात् । एवं सर्वप्रकृतीनां व्यतिरेकं विचारयेत् । मिथ्यात्वे बध्यमाने मिथ्यादृष्टावषः प्रवृत्तसंक्रमणं न कुतः ? सगुणट्ठाणम्मि णेव संकमदीति निषेधात् । पुनः स्त्यानगृद्धित्रयं द्वादश कषायाः षंढस्त्रीवेदो अरतिः शोकः - ॥४१९-४२०॥ आदेय, यशःकीर्ति, निर्माण इन उनतालीस प्रकृतियों में एक अधःप्रवृत्त संक्रमण ही होता है; क्योंकि ये उद्वेलन प्रकृतियाँ नहीं हैं इसलिए इनमें उद्वेलन संक्रमण नहीं होता । विध्यात २० संक्रमण अबन्ध दशा में सातवें गुणस्थान तक कहा है । अप्रमत्तगुणस्थान तक इनकी बन्ध व्युच्छित्ति नहीं होती । अतः विध्यात संक्रमण भी नहीं होता । इसींसे गुणसंक्रमण भी नहीं होता । वह भी अबन्धदशा में होता है । पूर्वमें कही गयीं सर्वसंक्रमणकी बावन प्रकृतियों में न होने से सर्वसंक्रमण भी नहीं होता । अतः एक अधःप्रवृत्त संक्रमण ही होता है । इसी प्रकार सभी प्रकृतियों में संक्रमणका विचार करना चाहिए । _शंका - मिथ्यात्वका बन्ध होनेपर मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अधःप्रवृत्त संक्रमण क्यों नहीं होता ? समाधान - अपने गुणस्थानमें इनके संक्रमणका निषेध किया है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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