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________________ कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सुरबोहिया विमिच्छा पच्छा जिणपूजणं पकुव्वंति । सुहसायर मज्झ गया देवा ण विदंति गयकालं ।। महपूजासु जिणाणं कल्लाणेसु य पंजांति कप्पसुरा । अहमिदा तत्थ ठिया णमंति मणि मौलिघडिदकरा ॥ विहितवरणभूसा णाणसुची सीलवत्य सोम्मंगा । जे ते सिमेव वस्सा सुरलच्छी सिद्धिलच्छी य ॥ ' - त्रि. सा. ५४५-५५४ गा । ई सूत्रात्थंगळेल्लं सुगमंगळ । यिल्लि चतुर्गतिसाधारण मिथ्यादृष्टचादि चतुर्गुणस्थानंगळु । अयदोत्तिछलेस्साओ सुहुतियलेस्सा हु देसविरदतिये | तत्तो सुक्का लेस्सा अजोगिठाणं अलेस्संतु ॥ एंदितु मिथ्यादृष्टि गुणस्थानदोळु षड्लेश्येगळं सासादनमिश्रा संयतर गळोळं षड्लेश्येगळं १० तिग्मनुष्यापेक्षेदिं देशसंयतनोल, त्रिलेश्येगळं शेषगुणस्थानंगळोळल्लं मनुष्यापेक्षेयिदं शुक्ललेश्येयुं पेळल्पट्टुवितु अशुभलेश्यात्रयदोळु त्रयोविंशत्यादिषट्स्थानंगळं तेजोलेश्यॆयोळु पंचविशत्यादिषट्स्थानंगलंं पद्मलेश्येयोल अष्टाविंशत्यादि चतुःस्थानंगळं शुक्ललेश्येयोल अष्टाविंशत्या - दिपंचस्थानंगळं, मिथ्यादृष्ट्यादि सूक्ष्मसांपरायपध्र्यंतं यथासंभवंगळप्पुवंते पेल्पट्टुवु ॥ ८७५ सुरबोहियाविमिच्छा पच्छा जिणपूजणं पकुव्वंति । सुहसायरमज्झगया देवा ण विदंति गयकालं ॥ महपूजासु जिणाणं कल्लाणेसु य पंजांति कप्पसुरा । अभिदा तत्य ठिया णमंति मणिमौलिघडिदकरा ॥ विहितवरयणभूसा णाणसुची सीलवत्थसोम्मंगा । जे तेसिमेव वस्सा सुरलच्छी सिद्धिलच्छी य ॥ अत्र - अपदोत्ति छल्लेस्साओ सुहतियलेस्सा हु देसविरदतिये । तत्तो सुक्का लेस्सा अजोगठाणं अलेस्सं तु ॥ १ ॥ इत्यशुभलेश्याश्रये बंघस्थानानि त्रयोविंशतिकादीनि षट् तेजोलेश्यायां पंचविंशतिकादीनि षट्, पद्मलेश्यायामष्टाविंशतिकादीनि चत्वारि, शुक्ललेश्यायां तदादीनि पंच, सूक्ष्मसांपरायांतं यथासंभवं ॥ ५४९ ।। २० Jain Education International अभिषेकपूर्वक पूजन करते हैं । जो मिध्यादृष्टि देव होते हैं वे भी अन्य देवोंके द्वारा समझाये जानेपर जिनपूजन करते हैं । सुख- सागर में निमग्न देव बीते कालको नहीं जान पाते -: - इतना समय कैसे बीत गया यह उन्हें पता नहीं चलता । कल्पवासी देव जिन-भगवान्‌की महापूजाओंमें तथा तीर्थंकरों के कल्याणक महोत्सव- २५ में सम्मिलित होते हैं । किन्तु अहमिन्द्र देव अपने स्थानपर रहकर ही दोनों हाथ मणिजटित शिरोमुकटसे लगाकर नमस्कार करते हैं । जो विविध प्रकार के तपश्चरण से भूषित हैं, ज्ञानसे पवित्र हैं, शोलरूपी वस्त्रसे जिनके सौम्य अंग वेष्टित हैं, देवलक्ष्मी और मुक्तिलक्ष्मी उन्हीं के वश में होती है । अस्तु । १५ चतुर्थ असंयत गुणस्थान तक छह लेश्या तथा देशविरत आदि तीन गुणस्थानों में तीन ३० शुभलं. या होती है । उसके पश्चात् शुक्ललेश्या होती है। अयोगी लेश्यारहित हैं । 1 तीन अशुभ लेश्याओं में तेईस आदि छह बन्धस्थान होते हैं । तेजोलेश्या में पचीस आदि छह बन्धस्थान होते हैं । पद्मलेश्या में अठाईस आदि चार बन्धस्थान होते हैं। शुक्लमें अठाईस आदि पांच बन्धस्थान होते हैं । ये बन्धस्थान सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान पर्यन्त यथायोग्य जानना ॥५४९ ॥ For Private & Personal Use Only ३५ www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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