SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५ गो० कर्मकाण्डे सामान्यकेवलियोळं समुद्घातसामान्यकेवलियोळं भाषापर्य्याप्तिय त्रिशत्प्रकृतिस्थानदोळ चतुव्विंशतिभंगंगळं तीर्त्यके वलियोळं समुद्याततीत्यके वलियोळमेकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानद्वयमुं समदोदो'दं पुनरुक्तम'दु बिडुतं विरलिप्प २५ तम्वु भंगंगळ कळेल्पडुवुवु । अनंतरं गुणस्थानदमेले नामोदयस्थानभंगंगळं योजि सिवपरु : णारयसण्णि मणुससुराणं उवरिमगुणाण भंगा जे । पुणरुत्ता इदि अवणिय भणिया मिच्छस्स भंगेसु ||६०७|| नारकसंज्ञि मनुष्य सुराणामपरितनगुणानां भंगा ये । पुनरुक्ता इत्यपनीय भणिताः मिथ्यादुभंगेषु ॥ नारुकरुगळ संज्ञिपंचेंद्रिय जीबंगळ मनुष्यरुगल सुररुगळ उपरितनगुणस्थानंगळोळावुवु केलवु १० भंगंगळपु पुनरुक्तंगळे दितु मिथ्यादृष्टिय भंगंगळोळ कळेदु पेळल्पट्टुवु । अवें तें बोर्ड संदृष्टि २१ २४ | २५ | २६ । १ ५९ / २७ | १८ | ६१० | १० | २८ | २२ ३० ३१ ६१४ | १० | ११६२ १७४६ | २८९६ / ११६०/ २० ९५४ मिथ्यादृष्टिगे | २१ | २४| २५ | २६ २९ ३० ३१ सासादनंगे | असंयतंगे Jain Education International |३१| ६| १| ५८४ | २|२३०४/११५२/ ३० ३१ | २ | २३०४१११५२ मिगे २९ | २१|२५|२६|२७|२८|२९| ३० ३१ वैश ३० ३१ संयतंगे २/०५/०६/१०/२ ४| २|३७| २७५/७६/२३९५/११५२ | २८८ | १४४ भाषापर्याप्त सामान्यके व लिसमुद्घातसामान्यकेवलिन स्त्रिशतकस्य चतुर्विंशतिश्चतुर्विंशतिः । तीर्थकेवलसमुद्वाततीर्थ केवलिनोरेकत्रिशत्कस्यैकैकश्च भंगाः समाना इति पंचविंशतिरपनेतव्याः ॥ ६०६ ॥ अथ गुणस्थानेषु तान् भंगानाह नारकसंज्ञितिर्यग्मनुष्य सुराणामुपरितनगुणस्थानेषु ये भंगास्ते पुनरुक्ता इति मिथ्यादृष्टिभंगेष्वपनीय भणिताः । तद्यथा भाषापर्याप्तिकाल में सामान्य केवली और समुद्घात सहित सामान्य केवलीके तीसके स्थानके चौबीस-चौबीस भंग समान हैं। तथा तीर्थंकर केवली और समुद्घात तीर्थंकर केवलीके इकतीसके स्थान में एक-एक भंग समान है । अतः ये पच्चीस भंग पुनरुक्त होनेसे नहीं लेना चाहिए ||६०६|| आगे गुणस्थानों में उन अंगोंको कहते हैं नारकी, संज्ञी तिथंच मनुष्य, देव इनके ऊपरके सासादन आदि गुणस्थानोंमें जो भंग हैं वे पुनरुक्त हैं क्योंकि मिध्यादृष्टिके भंगोंके समान हैं । अतः उन पुनरुक्त भंगोंको दूर कर मिध्यादृष्टिके भंगोंसे ही उन्हें भी कहा है । वही कहते हैं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy