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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका चतुविशतिकल्पंगलागुत्तं विरलु ३५२ । २४ । गुणिसियेटु सासिरद नानूरनाल्वत्तेंदु प्रकृत्युदयप्रकृतिगळोळु ८४४८। द्विप्रकृत्युदयस्थानद नाल्वत्तं'टु प्रकृतिगळुमनेकप्रकृत्युदयस्थानद पन्नोंदु प्रकृतिगळुमनंतय्वत्तो भत्तु ५९ प्रकृतिगळं प्रक्षेपिसुत्तं विरलु एंटु सासिरदैनूरेलु प्रकृतिदिम ८५०७ । मोहिसल्पटुवु ॥ अनंतरमपुनरुक्तस्थानसंख्य युमनवरपुनरुक्तप्रकृतिगमं पेळदपरु : एक्क य छक्केयारं दस सग चदुरेक्कयं अपुणरुत्ता । एदे चदुवीसगदा बारदुगे पंच एक्कम्मि ।।४८८।। एकं च षट्कैकादश दश सप्त चतुरेकमपुनरुक्तानि एतानि चतुविशतिगतानि द्वादशद्विके पंचैकस्मिन ॥ __एकं च दश प्रकृतिस्थानमो देयककुं। षट्क नवप्रकृतिस्थानंगळारप्पुवु । एकादश १० अष्टप्रकृतिस्थानंगळु पन्नों दप्पुवु । दश सप्तप्रकृतिस्थानंगळु दशप्रमितंगळप्पवेक दोडे वेदकसम. वितरप्प प्रमत्ताप्रमत्तरुगळोलोंदु सप्तप्रकृतिस्थानं पुनरुक्तमेदु कळेदुदप्पुदरिंद। सप्त षट्प्रकृति. स्थानंगळेळे यप्पुवेक दोडे वेदकसमन्वितप्रमत्ताप्रमत्तरुगळोळे रडु षट्प्रकृतिस्थानंगळगमवेवक प्रमत्ताऽप्रमत्तरुगळ षट्प्रकृतिस्थानद्व यवक मपूर्वकरणषट्प्रकृतिस्थान 'ओंदवकं पुनरुक्तत्वमप्पुदरिनवेरडुमंतु पुनरुक्तषट्प्रकृतिस्थानंगळ नाल्कु कळेदवप्पुरिदं। चतुः पंचप्रकृतिस्थानंगळु १५ नाल्कयप्पुवेक दोर्ड सवेदकरप्प प्रमताप्रमत्तरुगळोलो'दु पंचप्रकृतिस्थानमुमवेदकरोळेळ पंचप्रकृतिस्थानंगळोळु नाल्कु पंचप्रकृतिस्थानंगळ, पुनरुक्तंगळप्पुवंतु पुनरुक्त पंचप्रकृतिस्थानंगळेदुं कळेदु त्रिशतं चतुर्विशत्या संगुण्य ८४९६ एकप्रकृतिकस्यैकादशभिर्युताः सप्ताग्रपंचाशीतिशतानि । एतैः स्थानविकल्पैश्च त्रिकालत्रिलोकोदरवतिचराचरजीवा मोहिताः संति ॥४८७।। अथापुनरुक्तस्थानसंख्यां तत्प्रकृतीश्चाह दशकस्थानमेकं नवकानि षट् अष्टकान्येकादश सप्तकानि दशैव सवेदकप्रमत्ताप्रमत्तयोस्तदेकस्य पुनरुक्त- २० त्वात् । षटकानि सप्तव सवेदकप्रमत्ताप्रमत्तयोः षट्कद्वयस्य षट्कद्वयेन अवेदकप्रमत्ताप्रमत्तयोस्तु षट्कद्वयस्या २५ स्थानकी दो। सब मिलकर तीन सौ चौवन प्रकृतियाँ हुई। उन्हें चौबीस भंगोंसे गुणा करनेपर चौरासी सौ छियानबे, और एक प्रकृतिरूप स्थानके ग्यारह भंग मिलानेपर पचासी सौ सात भेद सर्व प्रकृतियोंकी अपेक्षा हुए। इन स्थान-भेद और प्रकृति-भेदोंसे त्रिकाल और त्रिलोकमें वर्तमान जीव मोहित हैं ।।४८७॥ आगे अपुनरुक्त स्थानोंकी संख्या और उनकी प्रकृतियाँ कहते हैं दस प्रकृतिरूप एक स्थान, नौ रूप छह स्थान, आठरूप ग्यारह स्थान, किन्तु सातरूप दस स्थान हैं। पहले ग्यारह कहे थे। उनमें से पहलेके कूटोंमें सम्यक्त्व मोहनीय सहित वेदक सम्यग्दृष्टिके प्रमत्त-अप्रमत्तके सात प्रकृतिरूप दो स्थान कहे थे। वे दोनों समान हैं। अतः एक स्थान पुनरुक्त होनेसे दस कहे। छह प्रकृतिरूप सात ही हैं। पहले ग्यारह कहे थे ३० उनमें-से वेदक सहित पहले कूटोंमें छह प्रकृतिरूप दो कूट प्रमत्तके और दो कूट अप्रमत्तके । १. अंतु मूरु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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