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________________ १४२० गो० कर्मकाण्डे अन्य प्रकृतिका परमाणु अन्य प्रकृति रूप होनेकी प्रक्रिया संक्रमण कहलाती है। जैसे संक्लेशपनेसे पूर्वमें असाता वेदनीय बँधी थी, बादमें विशुद्धताके बलसे उसके परमाणु साता वेदनीय रूप होकर परिणमन करते हैं। इसी प्रकार यथायोग्य अन्य प्रकृतियोंका संक्रमण भी ज्ञातव्य है। उद्वेलन प्रकृतिके जो परमाणु उन्हें उद्वेलन भागहारका भाग देनेपर, एक भाग मात्र परमाणु जहाँ अन्य प्रकृति रूप होकर परिणमन करते हों वहाँ उद्वेलन संक्रमण होता है। जहाँ मन्द विशुद्धता युक्त जीवके जिसका बन्ध न पाया जाये ऐसी जो विवक्षित प्रकृति हो, उसके परमाणुओंमें विध्यात भागहारका भाग देनेसे प्राप्त एक भागमात्र परमाणु अन्य प्रकृति रूप होकर परिणमन करनेको विध्यात संक्रमण कहते हैं। जहाँ जिसका बन्ध सम्भव हो ऐसी जो विवक्षित प्रकृति, उसके परमाणुओंमें अधःप्रवृत्त भागहार द्वारा भाग देनेसे प्राप्त एक भागमात्र परमाणुओंका अन्य प्रकृति रूप होकर परिणमन करना अधःप्रवृत्त संक्रमण कहलाता है। जहाँ विवक्षित अशुभ प्रकृतिके परमाणुओंको गुणसंक्रमण भागहार द्वारा विभाजित करनेसे प्राप्त एक भाग मात्र परमाणु अन्य प्रकृति रूप होकर परिणमन करें; कि प्रथम समय जितने परमाणु परिणमें, उसके दूसरे समय असंख्यात गणे परिणमें, इत्यादि, वहाँ गुणसंक्रमण है। जहाँ विवक्षित प्रकृतिके परमाणु अन्य प्रकृति रूप समय-समय परिणमते हुए अन्त समयमें अन्तिम फालिरूप ही अवशेष परमाणु जो हों वे सभी अन्य प्रकृति रूप होकर परिणमें, तो वहाँ सर्वसंक्रमण कहलाता है । भागहारोंका प्रमाण गोम्मटसारादि ग्रन्थोंसे ज्ञातव्य है । इसी प्रकार उपशान्तकरण, नित्तिकरण और निकाचितकरणका विवरण है। बन्ध सत्वको हानि होनेपर सवर-निर्जरा होती है। ये दर्शनचारित्र लब्धिपर आधारित है। दर्शनचारित्र लब्धिके निमित्तसे प्रथम ही मिथ्यात्व, नारक गति आदि अति अप्रशस्त प्रकृतियोंका और बादमें ज्ञानावरणादि अप्रशस्त प्रकृतियों वा प्रशस्त प्रकृतियोंके बन्धका अभाव हो जाता है। वहाँ प्रकृति बन्धका क्रमसे घटनेका नाम प्रतिबन्धापसरण है। प्रदेशबन्ध योगोंके अनुसार है इसलिए योगोंकी चंचलता हीन होनेपर प्रदेशबन्ध हीन हो जाता है। सर्वथा योग नाश होनेपर प्रदेशबन्धका भी सर्वथा अभाव हो जाता है । स्थितिबन्ध कषायोंके अनुसार होता है इसलिए मिथ्यात्वादि कषायोंके कम होनेपर स्थितिबन्ध क्रमसे हीन हो जाता है जिसे स्थितिबन्धापसरण कहते हैं। पूर्व में जितना स्थितिबन्ध होता था उससे विवक्षित कालमें जितना स्थितिबन्ध घटा उसी प्रमाण लिये स्थितिबन्ध अपसरण है। स्थितिबन्धापसरण होनेपर जितने कालमें समान स्थितिबन्ध सम्भव हो वह स्थितिबन्धापसरण काल है। उदाहरण : पूर्वमें १ लाख वर्ष मात्र स्थितिबन्ध सम्भव था। उसके एक हजार वर्ष प्रमाण मान लो स्थितिबन्धापसरण हुआ। तब अवशेष ९९००० वर्ष मात्र स्थितिबन्ध रहा । स्थितिबन्धापसरणके कालके पहले समयमें इतना स्थितिबन्ध होता है। इतना ही दूसरे समय, इत्यादि समान स्थितिबन्ध होता रहता है। बादमें मान लो ८०० वर्ष मात्र अन्य स्थितिबन्धापसरण हुआ, तब ९८२०० वर्ष मात्र शेष स्थितिबन्ध रहा । उस स्थितिबन्धापसरण कालके प्रथमादि समयोंमें उतना समान स्थितिबन्ध होता रहेगा। इस प्रकार स्थितिबन्ध घटते अपनी व्युच्छित्ति होनेके समयमें जघन्य स्थितिबन्ध होता है। बादमें स्थितिबन्धका नाश होता है। यह आयु बिना सर्व प्रकृतियोंका उपरोक्त क्रममें होता है। आयुका स्थितिबन्धापसरण सम्भव नहीं होता है क्योंकि नरक बिना तीन आयुका स्थितिबन्ध विशुद्धिसे अधिक होता है । पुनः अन्य सर्व शुभाशुभ प्रकृतियोंका स्थितिबन्ध संक्लेशतासे बहुत होता है और विशुद्धतासे स्तोक होता है । अनुभाग बन्ध पापप्रकृतियोंका संक्लेशसे बहुत होता है और विशुद्धतासे स्तोक होता है । पुण्य प्रकृतियोंका संक्लेशतासे स्तोक होता है विशुद्धिसे अधिक होता है। इस प्रकार अनन्तगुणा वा यथासम्भव घटता वा बढ़ता अप्रशस्त वा प्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग बन्ध अधिक हीन क्रमसे जैसे जहाँ सम्भव होता है वहाँ वैसे जानना चाहिए । पुनः प्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग बन्ध अधिक होनेसे आत्माका कथंचित् बुरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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