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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७०१ भंगविवक्षारहितमागि सामान्यदिदमवक्तव्यबंधमुपशमश्रेणियनिळियुतिपतिनोळु एक भंगमकुं। मरण मुंटादोडल्लियो दु भंगमकुमंतवक्तव्यबंधमेरडप्पुवा येरडरोळं द्वितीयादिसमयदोळु समप्रकृतिस्थानबंधमागुत्तं विरलु भयदोळ्कूडि यरडुभंगंगळवस्थितंगळप्पुवंतागुत्तं विरलु सामान्य बंधस्थानंगळु हत्तक्कं वक्ष्यमाणप्रकारदि भुजाकारबंधंगळिप्पत्तु । अल्पतरबधंगळपन्नों दु । आ भुजाकाराल्पतरमुभयदोळमवस्थितबंधंगळु कूडि मूवत्तोंदु । अवक्तव्यबंधद्वयद द्वितीयावि ५ समयदोळ संभविसुव अवस्थितबंधंगळे रडंतु कूडि अवस्थितबंधंगळु मूवत्तमूरु। भुजाकाराल्पतरावस्थितदिदं निरूपिसल्पडदुदरणिंदमवक्तव्यबंधमे बुदक्कुमवक्के क्रमदिदं संदृष्टि :-- ठा २२ । २१ । १७ । १३ ।९।५।४।३।२।१। कूडि १०॥ भुजाकार संदृष्टि :। ११ । २।२ । ३।३ । ४।४ । ५।५ । ९९ । ९९ | १३।१३।१३ । १७३१७ | २१ । २०१७ । ३।१७ | ४|१७ | ५।१७ | ९।१७ ॥१३॥१७ रश२२ । १७२श२२ | २०२२ | २२ अल्पतर संदृष्टि: । २२।२२।२२ १७.१७ | १३| ९ | ५ | ४ | ३ | २ | १७।१३। ९ ।१३।९।९ । ५ । ४।३।२।१ । अवक्तव्यबंधंगळ संदृष्टि ० ० अवस्थितंगळ कूडि मूवत्तमूरु ३३ । यिन्नु भुजाकारावि १११७ बंगळु संभविसुव प्रकारं पेळल्पडुगुमदेते दोडे-उपशमश्रेण्यवतरणवोळु अनिवृत्तिकरणं संज्वलनलोभमं कटुतलिळिदनंतर समयदोळु संज्वलनमाये सहितमागवतरणद्वितीयंप्रथमभागवोळ १० सामान्येन भंगविवक्षामकृत्वा अवक्तव्यबंधः । उपशमश्रेण्यवरोहके एकः । तत्र मरणेऽप्येकः एवं दो भवतः । तथा तदद्वितीयादिसमये चावस्थितबंधावपि द्वौ भवतः । अमीषां भजाकारादीनां संभवप्रकार उच्यते-- १५ अवरोहकानिवृत्तिकरणः संज्वलनलोभं बघ्नन्नघस्तनभागेऽवतीर्य मायासहितं बध्नाति वा स यदि बद्धायुषको म्रियते तदा देवासंयतो भूत्वा सप्तदश च बनातीत्येकबंधके भुजाकारी द्वौ। पुनः तवयं बनन्नवतोर्याधस्तनभागे मानसहितं बध्नाति । व। तथा देवासंयतो भत्वा सप्तदश बध्नातीति द्विबंधकेऽपि दो। पुनस्तत्त्रयं बघ्नन्नवतीर्याधस्तनभागे चतुःसंज्वलनान् वा देवासंयतो भूत्वा सप्तदश च बनातीति त्रिबंधके द्वौ। सामान्यसे अर्थात अंगोंकी विवक्षा न करके अवक्तव्य बन्ध दो होते हैं उपशमश्रेणिसे उतरनेपर एक और वहाँ मरनेपर एक । तथा उसके द्वितीय आदि समयमें अवस्थितबन्ध भी दो होते हैं । इन भुजाकार आदिके होनेको कहते हैं ___ उपशमश्रेणिसे उतरनेवाला अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती संज्वलन लोभका बन्ध करके नीचेके भागमें उतरकर माया-लोभ दोका बन्ध करता है। अथवा यदि वह बद्धायु वहाँ मरकर देव असंयत होकर सतरहका बन्ध करता है तो इस प्रकार एक प्रकृतिरूप बन्ध २५ स्थानमें दो भुजाकार होते हैं । पुनः उन दोनोंको बाँध नीचेके भागमें उतर मान सहित तीनका बन्ध करता है अथवा उक्त प्रकारसे असंयत देव होकर सतरहका बन्ध करता है तो दो प्रकृतिरूप बन्धस्थानमें भी दो भुजाकार होते हैं। पुनः उन तीनोंको बाँध उतरकर नीचेके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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