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________________ ८७७ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका दसणमोहक्खवणा खवगा चढमाण पढमपुवा य । पढमुवसम्मा तमतम गुणपडिवण्णा य ण मरंति ॥ येदितु प्रथमोपशमसम्यक्त्वदोळु मरणमिल्लप्पुरिदं । द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं मनुष्यपर्याप्तरोळं निर्वृत्यपर्याप्तदिविजरोळं संभविसुगुं। क्षायिकसम्यक्त्वं चतुर्गतिजपर्याप्तरोळं धम्म य निर्वृत्यपर्याप्तरोळं भोगभूमितिर्यग्मनुष्यनिर्वृत्यपर्याप्नरोळं सौधर्मादिसर्वार्थसिद्धि- ५ पर्यंतमाद दिविजरोळमक्कुं। वेदकसम्यक्त्वं चतुर्गतिजपर्याप्तरोळं निर्वृत्यपर्याप्तरोळमक्कुमल्लि प्रथमोपशमसम्यक्त्व में तप्प पर्याप्त रोळमक्कु में दोडे : चदुगदिमिच्छो सण्णी पुण्णो गन्भजविसुद्धसागारो। पढमुवसम्मं गैण्हदि पंचमवरलद्धिचरिमम्मि ॥ एंदितु नारकतिर्यग्मनुष्य देव पर्याप्तरो ठमकुमल्लि । तिप्यंवरोळसंज्ञिजीवव्यवच्छेदार्थ १० संजिजीबंगळेदु पेठल्पटुवा संजि जीवा ठोठु लब्ध्यपर्याप्त निवृत्यपर्याप्तरं व्यवच्छेदिसल्वेडि पूर्ण अपर्याप्तरो संपूच्छिमंगळं कळयल्वेडि गब्भजरुमा गर्भजरोळु संक्लिष्टरं परिहरिसल्वेडि विशुद्धरु मा विशुद्धरोळु अनाकारोपयोगरं परिहरिसल्वेडि साकारोपयोगयुक्तरुमप्प नलक्षणभव्यजीवपरिणामविशेषः। तच्चौपशमिकं क्षायिक वेदकमिति श्रेया। तत्राद्यं प्रथम द्वितीयभेद्दाद्वधा । तत्र प्रथमं दंसणमोहक्खवणा खवगा चडमाणपढमपुव्वा य । पढमुवसम्मा तमतमगुणपडिवण्णा य ण मरंति ।। इति चतुर्गतिपर्याप्तेष्वेव नापर्याप्तेषु । द्वितीयं पर्याप्तमनुष्यनिर्वृत्त्यपर्याप्तवैमानिकयोरेव । क्षायिक घर्मानारक भोगभूमितिर्यग्भोगकर्मभूमिमनुष्यवैमानिकेष्वेव पर्याप्तापर्याप्तेषु । वेदकं चातुर्गतिपर्याप्त निर्वृत्त्यपर्याप्तेषु । तत्र तत्प्रथमं कीदृग्जीवो गृह्णीयात् ? २० चदुगदिमिच्छो सण्णी पुण्णो गब्भज विसुद्धसागारो । पढमुवसम्मं गेण्हदि पंचवरलद्धिचरिमम्मि ।। भेद हैं-औपशमिक, क्षायिक और वेदक । औपशमिकके दो भेद हैं- प्रथम और द्वितीय । 'दर्शनमोहकी क्षपणा करनेवाले, क्षपकश्रेणीवाले, चढ़ते अपूर्वकरणके प्रथम भागवाले, प्रथमोपशम सम्यक्त्ववाले, और सातवें नरकमें सासादन आदि गुणस्थानोंमें चढ़े जीव मरते नहीं २५ हैं। अतः उन दोनों में से प्रथमोपशम सम्यक्त्व चारों गतिमें पर्याप्त जीवोंमें ही होता है, अपर्याप्त अवस्थामें नहीं होता। द्वितीयोपशम सम्यक्त्व पर्याप्त मनुष्य और निवत्यपर्याप्त वैमानिक देवों में होता है। क्षायिक सम्यक्त्व धर्मापृथिवीके नारकी, भोगभूमिया तिर्यश्व, भोगभूमि और कर्मभूमिके मनुष्य और वैमानिक देवोंमें पर्याप्त और अपर्याप्त दशामें होता है। वेदक सम्यक्त्व ३० चारों गतिके पर्याप्तक और निवृत्यपर्याप्तक जीवोंके होता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्वको कैसा जीव ग्रहण करता है, यह कहते हैं१. मिस्सा आहारस्सय इति पूर्बपाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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